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Vartika Nanda Travelogue: Bhopal to Bhimbetka: 20 April, 2024

Jun 5, 2012

माह की कवियत्री- वर्तिका नन्दा

सौभाग्यवती भव !
इबादत के लिए हाथ उठाए
सर पर ताना दुपट्टा भी
पर हाथ आधे खाली थे तब भी
बची जगह पर
औरत ने अपनी उम्मीद भर दी                                                                                                                       
जगह फिर भी बाकी थी
औरत ने उसमें थोड़ी कंपन रखी
मन की सीलन, टूटे कांच
और फिर
आसमान के एक टुकड़े को भर लिया
मेहंदी की खुशबू भी भाग कर कहीं से भर आई उनमें
चूड़ियां भी अपनी खनक के अंश सौंप आईं हथेली में

सी दिए सारे जज्बात एक साथ
उसके हाथ इस समय भरपूर थे

अब प्रार्थना लबों पर थी
ताकत हाथों में
क्या मांगती वो


खट्टा-मीठा
मीठा खाने का मन था आज भी
कुछ खट्टे का भी
अंगूर सा उछलता रहा मन
नमकीन की तड़प भी अजनबी थी
शाम होते-होते
थाल मे नीम के कसौरे थे
कुनबे को परोसने के बाद
स्त्री के हिस्से यही सच आता है


उत्सव
किसी एक दिन की दीवाली
एक होली
एक दशहरा
मैं क्यों जोड़ू अपने सपनों को किसी एक दिन से
एक दिन का फादर्स डे
एक दिन का मदर्स डे
एक दिन की शादी की सालगिरह
मांगे हुए उत्सव
या कैलेंडर के मुताबिक आते उत्सव
सरकारी छुट्टी की कमी भर सकते हैं
खाली पड़े पारिवारिक तकियों में रूई भी
पर अंतस भी भरे उनसे जरूरी नहीं


अपना उत्सव खुद बनना
अपनी होली खुद
अपनी पिचकारी
अपनी रंगोली भी
किसी सूखे पत्ते पर
दो बूंद पानी की डाल
किसी पेड़ की डाल से चिपक कर संवाद
और किसी खाली मन में सपनों के तारे भर कर
बुनी चारपाई पर बैठ
चांद को देखा जो मैनें

तो उत्सव कहीं दूर से उड़ कर
गोद में आ बैठे
मैं जानती हूं
ये उत्सव तब तक रहेंगे
जब तक मेरे मन में रहेगा
सच


आबूदाना
पता बदल दिया है
नाम
सड़क
मोहल्ला
देश और शहर भी

बदल दिया है चेहरा
उस पर ओढ़े सुखों के नकाब
झूठी तारीफों के पुलिंदों के पुल

दरकते शीशे के बचे टुकड़े
उधड़े हुए सच

छुअन के पल भी बदल दिये हैं
संसद के चौबारे में दबे रहस्यों की आवाजें भी
खंडहर हुई इमारतों में दबे प्रेम के तमाम किस्सों पर
मलमली कपड़ों की अर्थी बिछा देने के बाद
चांद के नीचे बैठने का अजीब सुख है


सुख से संवाद
चांद से शह
तितली से फुदक मांग कर
एक कोने में दुबक
अतीत की पगडंडी पर
अकेले चलना हो
तो कहना मत, खुद से भी

खामोश रास्तों पर जरूरी होता है खुद से भी बच कर चलना


इस मरूस्थल में
उन दिनों बेवजह भी बहुत हंसी आती थी
आंसू पलकों के एक कोने में डेरा डालते पर
बाहर आना मुमकिन न था

मन का मौसम कभी भी रूनझुन हो उठता
उन दिनों बेखौफ चलने की आदत थी
आंधी में अंदर एक पत्ता हिलता तक न था

उन दिनों शब्दों की जरूरत पड़ती ही कहां थी
जो शरीर से संवाद करते थे

उन दिनों
सपने, ख्वाहिशें, खुशियां, सुकून
सब अपने थे
उन दिनों जो था
वो इन दिनों किसी तिजोरी में रक्खा है
चाबी मिलती नहीं


पुश्तैनी मकान
सड़क किनारे खड़ी औरत
कभी अकेले नहीं होती
उसका साया होती है मजबूरी
आंचल के दुख
मन में छिपे बहुत से रहस्य

औरत अकेली होकर भी
कहीं अकेली नहीं होती

सींचे हुए परिवार की यादें
सूखे बहुत से पत्ते
छीने गए सुख
छीली गई आत्मा

सब कुछ होता है
ठगी गई औरत के साथ

औरत के पास

अपने बहुत से सच होते हैं
उसके नमक होते शरीर में घुले हुए

किसी से संवाद नहीं होता
समय के आगे थकी इस औरत का

सहारे की तलाश में
मरूस्थल में मटकी लिए चलती यह औरत
सांस भी डर कर लेती है
फिर भी
जरूरत के तमाम पलों में
अपनी होती है


मरजानी
असल नाम
शादी के कार्ड पर लिखा था
काग़ज़ी ज़रूरतों के लिए
कभी-कभार काम आया
फिर पड़ गया पीला

नाम एक ही था उसका-
मरजानी.!
तो सुनो कि अंत क्या हुआ

कि देखो आख़िर
आज मर ही गई मरजानी
तब भी चैन नहीं
देह से झांक कर देख रही है तमाशा
कुनबुना रहे हैं पति
बेवजह छूट गया दफ़्तर
सोमवार के दिन ही 

बच्चों की छटपटाहट-
काश मरतीं कल शाम ही
नहीं करनी पड़ती तैयारी इम्तहान की

अब कौन लाए फूलों की माला
नई चादर, नए कपड़े
इस तपती धूप में

कौन करे फ़ोन कि
आओ मरजानी पड़ी है यहां
देख जाओ जाने से पहले कि
तुम्हें पता लगेगा नहीं
वो मरी कि मारी गई

मरजानी जानती है
नौकरानी को नहीं मिल रहा
हल्दी का नया पैकेट
पति को अपनी बनियान
बेटे को अपनी ही छिपाई सीडी
घर को अपनी रोज की आदतों का सामान

कैसे बताए मरजानी
घर के किन कोनों में
सरकी पड़ी हैं ये सारी ज़रूरतें

मरजानी तो अभी भी है
पुराने कपड़ों में लिपटी हुई
बैठक के एक कोने में पटकी हुई
हां, मौत से पहले
अगर तैयार कर लिया होता ख़ुद ही
बाक़ी का सामान
तो न होता किसी का सोमवार बेकार

कौन जाने
आसान नहीं होता मरजानी होना
नक़ली हंसी हंसते हुए मरना
दीवालियों या नए सालों के बीच मरना
चुपके से मरना
हौले-हौले से मरना
दब-दब कर मरना
और मरना

यह मरना सोमवार को कहां हुआ
मरना तो कब से रोज़-रोज़ होता रहा
मरजानी को ख़बर थी
घर की दीवारों को
रंगों को
चिटकनियों को
बर्तनों को
गीले तकियों को
बस उसे ही ख़बर नहीं थी
जिसका हो गया सोमवार बेकार
कौन हूं मैं         
इस बार नहीं डालना
आम का अचार
नहीं ख़रीदनी बर्नियां
नहीं डालना धूप में
एक-एक सामान

नहीं धोने खुद सर्दी के कपड़े
शिकाकाई में डाल कर
न ही करनी है चिंता
नीम के पत्ते
ट्रंक के कोनों में सरके या नहीं

इस बार नींबू का शरबत भी
नहीं बनाना घर पर
कि खुश हों ननदें-देवरानियां
और मांगें कुछ बोतलें
अपने लाडले बेटों के लिए

नहीं ख़रीदनी इस बार
गार्डन की सेल से
ढेर सी साड़ियां 
जो आएं काम
साल भर दूसरों को देने में

इस साल कुछ अलग करना है
नया करना है
इस बार जन्म लेना है
पहली बार सलीक़े से
इस बार जमा करना है सामान
सिर्फ़ अपनी ख़ुशी का
थोड़ी मुस्कान
थोड़ा सुकून
थोड़ी नज़रअंदाज़ी और
थोड़ी चुहल
लेकिन यही प्रण तो पिछले साल भी किया था न


कवितागिरी
रोटी बेलते हुए लगा
ज़िंदगी का फ़लसफ़ा गोल है
रोटी जली
तो लगा, बे-स्वाद
रोटी से माटी की ख़ुशबू आई
मन ने कहा, ज़िंदगी जीने की चीज़ है
दरअसल सब कुछ रोटी के क़रीब ही रहा
दिल के भी

बिना दिल के बनी रोटी
जैसे बेमन सांस लेती उतरती ज़िंदगी
यह तो वैसे ही है
जैसे दिमाग़ से लिखना कविता


क्यों भेजूं स्कूल
नहीं भेजनी मुझे अपनी बेटी स्कूल
नहीं बनाना उसे पत्रकार
क्या करेगी वह पत्रकार बनकर
अगर नाम कमा लेगी तो नहीं बन पाएगी पूरी औरत।

तालीम कहां सिखाएगी उसे
कि वह मर्द की जमीन है
उसका आसमान नहीं।

क्यों भेजूं उसे स्कूल
इसलिए कि वह सपनों की रंगीन पतंग उड़ाना सीखे
और पतंग उडने से पहले ही फट जाए।


नहीं, मुझे उसे पढ़ी-लिखी नहीं बनाना
मैं तो उसे खून के आंसू पीना सीखाऊंगी
तालीम यही है


बहूरानी
बड़े घर की बहू को कार से उतरते देखा
और फिर देखीं अपनी
पांव की बिवाइयां
फटी जुराब से ढकी हुईं
एक बात तो मिलती थी फिर भी उन दोनों में -
दोनों की आंखों के पोर गीले थे


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