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Jun 12, 2011

शायद यही हो वो

आकाश के फाहे निस्पंद

ऊनी स्वेटर बुनती चोटियों के बीच में से गुजरते हुए

कभी रोक पाए इनकी उड़ान क्या।

 

समय मौन था

सोचता

सृष्टि क्यो, कैसे, किस पार जाने के लिए रची ब्रह्मा ने

 

आत्माएं चोगा बदलतीं

आसमान की तरफ भगभगातीं प्रतिपल

शरीरों के दाह संस्कार

पानी में तैरते बचे आंसुओं के बीच

इतना बड़ा अंतर

 

निर्माण, विनाश, फिर निर्माण की तमाम प्रक्रियाओं में

समय की बांसुरी बजती रही सतत

वो सूक्ष्म-सा दो पैरों का जीव

इतनी क्षणभंगुर जमीन पर भी

गर्वित हो चलता कितना अज्ञानी

 

ज्ञान-अज्ञान, वैराग-अनुराग की सीमाओं से उठ पाना ही है

शायद

जीवन का सार

 

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