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Jail Radio: Ambala

Jan 20, 2012

बैगपाइपर पत्रकारिता के बीच


तीन दिनों तक प्रियंका ही खबरों में रहीं। उनकी मुस्कुराहट, उनके कपड़ों का रंग, हंसने की अदा, फुर्ती, हाजिरजवाबी, मन को मोहने वाली बातें, अपनी दादी से मिलता चेहरा, मिलनसारिता, उनके व्यक्तित्व का करिश्मा और भी न जाने क्या-क्या। हालांकि इनमें से किसी भी बात से इंकार नहीं किया जा सकता पर मीडिया की मुग्ध होती रिपोर्टिंग और रसीली एंकरिंग के कुछ पहलुओं पर इंकार जतलाना जरूरी लगता है।

दरअसल गाना गाती यह रिपोर्टिंग चुनावी माहौल में ज्यादा मुखर तरीके से नोटिस में ली जाती है, ली जानी चाहिए भी। उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी के चुनावी दौरे के समय तमाम चैनल एक साथ प्रियंकामय हो गए तो बात उनके करिश्मे के साथ ही मीडिया के आचार-व्यवहार और चुनावी सीमाओं के पास भी जाकर पहुंची। माहौल चुनावी न होता तो शायद ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। समझा यही जाता कि मीडिया को भी खबर की अपनी जरूरतों को पूरा करना होता है और टीआरपी देखने होती है पर इस बार बात चुनावों की है। ऐसे में मीडिया की पुरानी किताबों को दोबारा खंगालने की जरूरत भी महसूस हुई। मीडिया आलोचक अडवर्ड एस हरमन और नोम चोमस्की ने 1988 में प्रोपोगेंडा मॉडल पर बात की थी जिसके मुताबिक निष्पक्षता को अगर नजर अंदाज किया जाए तो वह सरकार(सत्ता) और ताकतवर घरानों की तरफदारी की रिपोर्टिंग बन कर रह जाती है। 1957 में टाइम्स के संपादक डिलेन ने कहा था कि पत्रकार का काम एक इतिहासकार जैसा ही होता हैः उसे तथ्यों की बात करनी होती है पर साथ ही सुनिश्चित करना होता है कि सच को उसी रूप में दिखाया जाए जो पूरी तरह से खालिस हो और वहीं खत्म होता हो जहां तक वह जरूरी हो। उसका काम पाठक को स्टेटक्राफ्ट में ढाल कर सच परोसने का नहीं है। न्यूज मीडिया की हदें और सरहदें काफी हद तक तय हैं।

तो बात फिर प्रियंका की रिपोर्टिंग की। तीन साल बाद अचानक रायबरेली-अमेठी जाने पर प्रियंका को पलकों में बिठाया गया है। यहां इस शिकायत पर ज्यादा तवज्जो नहीं है कि वे अब तक अपने पारिवारिक क्षेत्र से इतने दिनों तक दूर क्यों रहीं। वे राजनीति में आने के बारे में सीधा और खाली जवाब क्यों नहीं देतीं और यह कि इस बात के मायने क्या हैं कि वे राहुल बाबा के कहने पर यहां आईं हैं। क्या किसी चुनावी क्षेत्र का दौरा सिर्फ अपने भाई की खुशी और सफलता की दरकार पर ही किया जाता है। इसके अलावा यह महिमामंडित प्रचार क्या पूरी तरह से चुनावी आचार संहिता के अंतर्गत आता है। सवाल कई हो सकते हैं। एक सवाल यह भी कौंधता है कि रिपोर्टिग का जो सुर हमने इन तीन दिनों में सुना और देखा, क्या यह वही होता अगर किसी और राजनीतिक चेहरे ने अरसे बाद अपने इलाके की सुध ली होती। क्या मीडिया तब भी गुड़ वाली गजकी पत्रकारिता करता और ओबी वैन भगा-भगा कर अपने स्टार पत्रकारों के जरिए प्रियंका को स्टार कैंपेनर कहता।

प्रियंका के जादू से किसी को इंकार नहीं और न ही उनकी संवेदना से भरपूर भारतीय जनता पर पकड़ को किसी भी तरह से नकारा जा सकता है पर सवाल हमारा अपना है। क्या मीडिया का काम जादू की रिपोर्टिंग करना है। क्या उसका काम व्यक्ति केंद्रित होना है, क्या उसका काम (खास तौर पर चुनाव के समय पर) कौंधती रौशनी से नहाए किसी एक हिस्से को पूरी तरह से सर्वोपरि बना देना है। क्या मीडिया का काम असंतुलित होकर जागरण में बैठ जाना है। क्या आने वाले दिनों में रिपोर्टिंग को लेकर कई मापदंड तय किए जाएंगे और अगर हां, तो उन्हें कौन, कब करेगा। बैग पाइपर जर्नलिज्म को क्या जर्नलिज्म माना जाना चाहिए? मेरा सवाल यहीं से शुरू होता है।

Jan 1, 2012

अधूरी कविता

थके पांवों में भी होती है ताकत
देवदारों में चलते हुए
ये पांव
झाड़ियों के बीच में से राह बना लेते हैं
गर
भरोसा हो
सुबह के होने का
सांसों में हो कोई स्मृति चिन्ह
मन में संस्कार
और उम्मीदों की चिड़िया
जिंदा है अगर
तो जहाज के पंछी को
खूंटे में कौन टांग सकता है भला