Aug 27, 2011

सफ़र में धूप तो होगी, चल सको तो चलो

एकला कोई नहीं चलता
साथ चलते हैं अपने हिस्से के पत्थर
किसी और के दिए पठार
नमक के टीले
जिम्मेदारी से लदे जिद्दी पहाड़
दुखों के गट्ठर

कभी कभी होता ऐसा भी है
साथ चल पड़ते हैं मीठे कुछ ख्याल
किसी के होंठों से फूटती महकती हंसी
सरकती युवा हवा
बारीक लकीर सी कोई खुशी

ये सब आते हैं, कभी भी चले जाते हैं
ठिकाना कभी तय नहीं
खानाबदोशी, बदहवासी, उखड़े कदम
लेकिन इन सबमें टिके रहती है
पैरों के नीचे की जमीन
सर का टुकड़ा आसमान
उखड़ी-संभली सांसें
और एक अदद दिल
एकला कहां, कौन, कैसे

Aug 23, 2011

संडे इडियन-अगस्त, 2011


21वीं सदी की 111 हिंदी लेखिकाएं - संडे इंडियन का ताजा अंक - आभार सहित


http://thesundayindian.com/hi/story/women-writers-in-delhi/7337/

Aug 9, 2011

ज़िन्दगी न मिलेगी दोबारा या दूरदर्शन?

(9 अगस्त, 2011 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित)

क्या दूरदर्शन नहीं मिलेगा दोबारा

क्या दूरदर्शन कोई जोकर है, बेकार का चैनल है, हंसी और दुत्कार की चीज है, बेवजह का सामान है। आप का जवाब जो भी हो, फिल्म जिंदगी न मिलेगी दोबारा में इसका जवाब हां ही है। ऋतिक रोशन जब अपने बाकी के दो दोस्तों को दूरदर्शन की सिग्नेचर ट्यून याद दिलाता है और उसके बाद तीनों उस पर फूहड़ तरीके से हंसते हैं तो अंदर से रोना आता है पर सामने देखती हूं, बहुत सी तालियां और सीटियां बजती हैं। साल 1973 था जब उस्ताद अली अहमद हुसैन ने दूरदर्शन के इस सिग्नेचर ट्यून को सुरों में ढाला। बाद में जो परिष्कृत रूप हमें दिखा, उसमें पंडित रवि शंकर का अहम रोल था। 1959 में जन्मा दूरदर्शन हौले-होले इस देश की कहानी को लिखते-बनते देखता रहा और एक कुशल शिल्पी की तरह उसमें निखार लाता रहा। बरसों लोग इस सिग्नेचर ट्यून का इंतजार किया करते थे। यह प्रसारण के शुरू होने का संकेत था और अपनी घड़ी के सही होने का भी। दूरदर्शन इकलौता टीवी था उस वक्त, जनसेवा प्रसारक भी। लेकिन इस नन्हें शावक को किसी ने गंभीरता से लिया ही नहीं। काले-सफेद टीवी के परदे के सामने बैठ कर दर्शक सत्यम शिवम सुंदरम के उस लोगो को बहुत चाव से देखा-सुना करते थे। यह धुन उन्हें जैसे किसी दूसरी दुनिया में ले जाती थी। उन दिनों दूरदर्शन पर दिखाए जानेवाले गिने-चुने कार्यक्रमों में प्रमुख होता था - कृषि दर्शन। 26 जनवरी, 1966 को शुरू हुआ कृषि दर्शन। इसका मकसद था-किसानों तक कृषि संबंधी सही और जरूरी सूचनाओं का प्रसारण। यह एक प्रयोग था जिसे सबसे पहले दिल्ली और आस-पास के चुने गए 80 गांवों में सामुदायिक दर्शन के लिए विकसित किया गया। यह प्रयोग सफल रहा और यह पाया गया कि हरित क्रांति के इस देश में कृषि दर्शन ने किसानों से बेहद जरूरी जानकारियां बांटने में जोरदार भूमिका निभाई। इसी दौर में शुरू हुआ चित्रहार। चित्रहार लोगों के लिए खुशी का एक अवसर था जो उन्हें घर बैठे-बैठे मिलता था। लेकिन इस कार्यक्रम ने एक बेहद स्मार्ट प्रयोग को भी जन्म दिया। यहां गाने की ही भाषा में सब टाइटलिंग होने लगी। इस कोशिश ने एजुटेंमेंट की बुनियाद रख दी और नव साक्षरों के इस देश में साक्षरता को एक नई ऊंचाई दी। जो नए पढ़ेलिखे थे, वे अपनी पहचान के शब्द देख कर उन्हें पढ़ते-गाते हुए गौरवांवित होते और जो पढ़ना न जानते, वे भी अपने जाने-पहचाने गाने सुनते हुए शब्दों के साथ एक नई तरह की रिश्तेदारी कायम कर लेते। शब्दों के साथ इस नए संबंध को इसी सरकारी दूरदर्शन ने बनाया। समान भाषा में सब-टाइटलिंग( सेम लैंग्वेज सब टाइटलिंग यानी एसएलएस) ने लाखों लोगो को अक्षरों से जोड़ा। दूरदर्शन की इस कोशिश को हकीकी रूप देने में इंडियन इंस्टीट्यूट आफ मैनेजमेंट, अहमदाबाद ने भरपूर सहयोग दिया। कहानी यूं बनी कि 2002 में आईएमए ने वल्ड बैंक की ग्लोबल इनोवेशन प्रतियोगिता में एक पुरस्कार जीता। यह महसूस किया गया कि एसएलएसटी के जरिए एक साल तक 50 करोड़ लोगों को महज 3 पैसे प्रति व्यक्ति के खर्च पर साक्षर करने की कोशिश की जा सकती है। इससे पहले 2000 में इस तकनीक को लंदन स्थित इंस्टीट्यूट आफ सोशल इनवैन्शंस ने उस साल की बेहतरीन खोज का इनाम दिया था। यह इनाम शिक्षा की श्रेणी के लिए ही दिया गया था। बाद में इसी प्रयोग से उत्साहित होकर 1975 में साइट परियोजना की नींव रखी गई। भारत में तकनीक और सामाजिक स्तर पर यह सबसे बड़ी परियोजनाओं मे से एक बना। इसके तहत भारत के 6 राज्यों(राजस्थान, कर्नाटक, उड़ीसा, बिहार, आंध्र प्रदेश और मध्य प्रदेश) के 2330 गांवों को चुना गया। इसका मकसद था - जरिए गांवों की संचार प्रणाली की प्रक्रिया को समझना, टेलीविजन को शिक्षा के माध्यम के तौर इस्तेमाल करना और ग्रामीण विकास में तेजी लाना था। बेशक बनाए जा रहे कार्यक्रमों में कृषि और परिवार नियोजन को भरपूर तरजीह दी गई। 5 से 12 साल के स्कूली बच्चों के लिए हिंदी, कन्नड, उड़ीया और तेलुगु में 22 मिनट के कई ऐसे कार्यक्रम तैयार किए गए जिससे बच्चों में विज्ञान में दिलचस्पी बढ़ी। इस परियोजनाने यह साबित किया कि दूरदर्शन ग्रामीण शिक्षा और विकास की रफ्तार को बढ़ाने के लिए एक बड़ा हथियार हो सकता है। लेकिन दूरदर्शन कभी भी वह रफ्तार नहीं पकड़ा पाया और न ही ला पाया वह गुणवत्ता जिसकी उससे अपेक्षा थी। बेशक भारत में टेलीविजन की शुरूआत जरा देर से ही हुई। नई दिल्ली में सितंबर, 1959 को पहला केंद्र स्थापित होने के बाद मुंबई में दूसरा केंद्र स्थापित करने में ही सरकार ने 13 साल का समय लगा दिए और रंगीन होने में तो 23 साल ही लग गए। वह भी तब जब भारत में एशियाड खेल आ धमके। दूसरी बार सफलता का मील का पत्थर साबित हुए खाड़ी युद्ध। फिर तो भारतीयों की आंखें ऐसी खुली कि जैसे चुंधिया ही गईं। 1962 में 41 टीवी सेटों से शुरू हुई कहानी फिर ठहरी नहीं। उसने रामायण और महाभारत जैसे धारावाहिकों से खूब तालियां और शोहरत तो बटोरी लेकिन यह दोनों ही उसने खुद नहीं बनाए थे। 90 के दशक में जब निजी चैनलों ने दस्तक दी, तब भी दूरदर्शन जाग न पाया। उसके लिए विकास प्राथमिकता तो रहा लेकिन गुणवत्ता की जरूरत उसे तब भी समझ में न आई। हां, पर सच यह भी तो था कि निजी चैनलों ने कभी भी विकास को पहली प्राथमिकता नहीं दी। निजी चैनल रसोईयों में पकवानों की रिसिपी तो सिखाते रहे और कहीं-कहीं किसान भाइयों सरीखे कार्यक्रम भी दिखे लेकिन उनमें पैसा कमाने की भूख ज्यादा हावी रही। मेरा गांव मेरा देश, किसान भाइयों और जय जवान जय किसान जैसे कार्यक्रमों की शुरूआत भी हुई लेकिन नेक नीयती के स्तर पर वे पिछड़ गए। निजी चैनल तिजोरी भरने की ऐसी जल्दी से लदे रहे कि भारत के सच्चे और सुच्चे मुद्दे हाशिए पर ही सिमटे रह गए। लेकिन फिर भी यह सवाल पूछने का मन करता है कि दूरदर्शन पर इस तरह का भद्दा मजाक हुआ कैसे और क्यों। एक ऐसा देश जहां फालतू की बातों पर भी लोग नाराज हो जाया करते थे, जहां रत्ती भर की बात से कथित धार्मिक भावनाएं आहत हो जाती हैं, वहां दूरदर्शन के साथ ऐसी हंसी सरेआम होती है और पत्ता भी नहीं सरकता। क्या दूरदर्शन वाकई ऐसी बोरियत भरी चाज रहा, हमेशा। जिसने इस संवाद को लिखा या जिसने उसे सोचा, उसकी सोच पर तो खैर दुख होता ही है लेकिन साथ ही ऋतिक रौशन को लेकर भी कम चोट नहीं लगती। वे शायद नहीं जानते होंगे कि उस दौर में दूरदर्शन ने खूबसूरत जैसी फिल्म को इतनी बार न दिखाया होता तो उनके पिता राकेश रौशन भी शायद लोकप्रियता के उस चरम पर नहीं पहुंच पाए होते। एक बात और। निजी चैनल के मालिकों और पत्रकारों को भी शायद उस सीन को देखकर जम कर हंसी आई होगी लेकिन वे भी तब अपने गिरेबान में झांक कर यह मानने से चूक गए होंगे कि आज वे जिस भी मुकाम पर हैं, उसमें बड़ा रोल इस दूरदर्शन का ही रहा। दूरदर्शन ने उस दौर में वो जगह और वो मोटा पैसा न दिया होता तो मियां अभी शायद कहीं दिखते भी न। लेकिन यह दूरदर्शन की किस्मत है और बहुत कुछ खुद उसकी करनी भी। दूरदर्शन ने खुद को कभी भी शिकायतों के पिटारे से बाहर लाने की ईमानदार कोशिश नहीं की। नही। वहीं समय ठहर गया लगता है। सफेद हाथी ही हो गया है दूरदर्शन। जो युवा रखे भी गए हैं, वे अनिश्चिचतता के माहौल में टंगे रहते हैं। लाल फीताशाही चरम पर है। आज भी मंत्रियों के नाते-रिश्तेदारों को पीछे के सुनहरे दरवाजे से अंदर भर लिया जाता है। जायज फाइलों को सरकने में महीनों लग जाते हैं। दूरदर्शन की परोसी सरकारी उदघाटन की खबरों से ज्यादा लोग दूरदर्शन में फैले भ्रष्टाचार को याद रखते हैं। लेकिन इसे बावजूद यहां यह पूछने का मन करता है कि क्या यही मजाक किसी निजी चैनल पर करने की हिम्मत भी होती। वहां हालात क्या बहुत आइडियल हैं। वैसे इस देश में बात-बे-बात धरने होते रहते हैं, धार्मिक भावनाओं को किसी इशारे से भी ठेस लग जाती है लेकिन जब बारी एक सरकारी माध्यम की आती है, तो उसकी बात करने वाला कोई दिखता नहीं, खुद सरकारी चैनल भी नहीं। यह मजाक अगर आज तक, एनडीटीवी या किसी भी और चैनल पर किया गया होता तो बात ही कुछ और होती। फिल्में समाज की कहानी भी होती हैं। वे एक माहौल बनाती हैं और जिम्मेदारी के मंच पर खड़ी होती हैं। फिल्मों को देखने वाला हर दर्शक परिपक्व हो, यह कतई जरूरी नहीं। कई बार वह जो देखता है, उस पर अंधविश्वास कर लेता है। मजाक किसी दायरे में हों और हित में तो ही उचित है। वर्तमान इतिहास का मजाक उड़ाए और खुद को समझने लगे शहंशाह। भूल जाए कि उससे उसने पाया क्या था, इसे क्या सिर्फ एक भूल कहा जा सकता है। इतना कहना ही काफी समझें। (यह लेख 9 अगस्त, 2011 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ)

Aug 3, 2011

सुर

कोई सुर अंदर ही बजता है कई बार
दीवार से टकराता है
बेसुरा नहीं होता फिर भी

कितनी ही बार छलकता है जमीन पर
पर फैलता नहीं

नदी में फेंक डालने की साजिश भी तो हुई इस सुर के साथ बार-बार
सुर बदला नहीं

सुर में सुख है
सुख में आशा
आशा में सांस का एक अंश
इतना अंश काफी है

मेरे लिए, मेरे अपनों के लिए, तुम्हारे लिए, पूरे के पूरे जमाने के लिए
पर इस सुर को
कभी सहलाया भी है ?
सुर में भी जान है
क्यों भूलते हो बार-बार

Aug 1, 2011

अब फेसबुक ने बनाई ‘ तीसरी दुनिया ’

एक नई दुनिया बन कर तैयार हो रही है। यह दुनिया एक दूसरे से मिले बिना एक दूसरे से जुड़ी रहती है। एक दूसरे के सपने, गुस्से और दुख को बांटती है और पल भर में एक दूसरे के साथ जुड़ भी जाती है। यह बात अलग है कि जितनी तेजी से जुड़ती है, उतनी ही तेजी से उन संबंधों को किसी डस्टबिन में फेंक आगे निकल भी जाती है।

नए आकंड़े बड़ी मजेदार बातें बताते हैं। अगर दुनिया भर के फेसबुक यूजर्स की संख्या को आपस में जोड़ लिया जाए तो दुनिया की तीसरी सबसे अधिक आबादी वाला देश हमारे सामने खड़ा होगा। अब जबकि आबादी की 50 प्रतिशत हिस्सा 30 से कम उम्र का है, फेसबुक स्टेटस सिंबल बन चुका है। आधुनिक बाजार का 93 प्रतिशत हिस्सा सोशल नेटवर्किंग साइट्स का इस्तेमाल करता है। भारतीय युवा तो इस नए नटखट खिलौने के ऐसे दीवाने हो गए हैं कि भारत दुनिया का चौथा सबसे अधिक फेसबुक का इस्तेमाल करने वाला देश बन गया है।

कोलंबिया यूनिवर्सिटी से आए श्री श्रीनिवासन हाल ही में दिल्ली के अमरीकन सेंटर में सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर खूब खुलकर बोले। देश के कुछ बड़े कालेजों के छात्रों के बीच उनकी कही बातें फेसबुक के बड़े होते कद को बार-बार साबित करती चली गईँ। एकबारगी तो ऐसा लगा कि जैसे फेसबुक का पीआर ही हो रहा हो। यहां पारंपरिक साधनों का कोई जिक्र नहीं था। यहां फेसबुक एक ऐसे राजा की तरह उभरा जो प्रजा भी खुद है और शहंशाह भी।

छात्रों से भरे इस हाल में एक टिप्पणी ऐसी थी जिसने चौंका दिया। एक युवक ने कहा कि फेसबुक को अब बड़ी उम्र के लोग यानी 35 पार वाले भी इस्तेमाल करते हैं। यानी छात्रों को यह मुगालता है कि फेसबुक शायद सिर्फ उन्हीं के लिए ईजाद किया गया और दूसरे 35 से पार वाले लोग बुजुर्ग हैं। यह संकेत एक ऐसे माहौल के तैयार होने का है जहां मुस्कुराहट भले ही हो पर यथार्थ और गरमाहट यहां से नदारद है।

फेसबुक जिस आपसी जुड़ाव की कथित जमीन को तैयार कर रहा है, यह उसके खोखलेपन का एक बड़ा सुबूत है। उन्हें फेसबुक की यह दीवानगी उपजी कहां से है और क्यों है। असल में फेसबुक युवाओं के अंदर फैले उस खालीपन को दूर करने का रास्ता है जिसे वे किसी अंधेरी सुरंग में छिपाए रहते हैं। लेकिन यहां एक बात और सोचने की है। हर नई चीज को सिर्फ युवाओं से ही क्यों जोड़ा जाए। क्या फेसबुक सिर्फ युवाओं की ही जरूरत है। नहीं। बड़ी तादाद में बुजुर्ग इस फेसबुक से जुड़ने लगे हैं ( और यहां बुजुर्गों से आशय 70 पार के लोगों से है) और उनका जुड़ना भावनात्मक स्तर पर ज्यादा निश्छल है। यहां किसी इम्प्रैस करने के लिए फेसबुकपना नहीं किया जाता। यहां अपनों की तलाश की जाती है, पोते-पोतियों को भूली-बिसरी लोरियां याद दिलायी जाती हैं और उनसे उनके हाल की खोज-खबर कर झुर्रियों से भरे चेहरों पर मुस्कान लाने की कोशिश की जाती है। रिश्तेदार जो अक्सर रविवार की शामों को जमा हो कर गली-मोहल्लों-स्कूलों की पुरानी बातें यादें किया करते थे, वे भी अब इसी फेसबुक पर जमा होकर कागजी धमाचौकड़ी कर लेतें हैं और खुशियां बांट लेते हैं। यह एक बड़ी बात है। अकेलेपन को भोगते बुजुर्गों के लिए यह फेसबुक सपनों का उड़नखटोला बन कर आया है। उम्र के इस पड़ाव पर अपने पुराने दोस्तों को ढूंढने के लिए अब उन्हें बेवजह ही व्यस्त दिखते अपने बेटों के आगे चिरौरी नहीं करनी पड़ती। वे खुद जब चाहें अपनी पुरानी जड़ों को तलाश सकते हैं और अपने बुढ़ापे में कुछ रौशनियां भर सकते हैं।

एक बात और ख्याल आती है। अमरीका जोर-शोर से फेसबुक की बात करता रहा है। हम भारत में रहकर भी कभी भी अपने पारंपरिक संचार माध्यमों का वैसा प्रचार कर ही नहीं पाए। भारतीय रेल के एक बड़े अधिकारी अरविंद कुमार सिंह सालों साल डाकिए पर शोध करते रहे हैं और इस पर उनकी लिखी किताब देश की सबसे अनूठी किताब है पर उसका ऐसा प्रचार कभी नहीं हुआ। डाक के डिब्बे और डाकिए के हाथों से मिलती एक चिट्ठी जिंदगी में कैसे रंग भरा करती थी, इस पर भारत सरकार कभी फख्र से झंडे गाढ़ नहीं पाई। पातियों के वे भीगे-महकते दिन अब शायद कभी लौटें। कबूतर भी शायद कुछ सालों में गुप्त संदेश ले जाने के रास्ते भूल जाएं लेकिन अमरीका याद रखेगा कि फेसबुक और बाकी दूसरे संचार माध्यमों को अधिकाधिक पापुलर कैसे बनाना है। हम सोचते ही रह जाते हैं और बिग ब्रदर हमेशा एक लंबी छलांग भर कर आगे निकल जाता है।

(यह लेख 1 अगस्त, 2011 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ)