Apr 11, 2011

सपना नहीं, हकीकत हो फिल्म सिटी

सुंदर झीलें, बड़े पार्क, महल, खंडहर, गलियां, मोहल्ले, हाट, इमारतें सब सच की तरह दिखा देने में माहिर टेलीविजन धारावाहिकों की जिंदगी का सेट भी अब बदलने लगा है। खबर है कि धारावाहिकों के कैमरे अब मुंबई से बाहर जाकर दूसरे ठिकानों को खोजने में जुटने लगे हैं। इन शहरों में धारावाहिक बनाने के आदी रहे निर्माताओं के लिए नए विकल्प खोजना अब एक मजबूरी हो गई है। इसकी एक वजह नएपन की तलाश कही जा सकती है लेकिन बड़ी वजह जगह का अभाव, बढ़ता हुआ खर्च और तीखी प्रतिस्पर्धा भी है।

दरअसल बरसों शूट के लिए पारंपरिक रूप से फिल्म सिटी का इस्तेमाल किया जाता रहा है लेकिन पिछले कुछ सालों में टेलीविजन का दायरा और धारावाहिकों का निर्माण इस कदर बढ़ा है कि मुंबई की फिल्म सिटी अब सिमटा हुआ दिखने लगी है।

नए चैनलों की भीड़ की वजह से फिल्म सिटी पर भी दबाव बढ़ा है और यहां किराये की कीमतें कई गुणा बढ़ गईं हैं। एक आम शूट के लिए यहां पर हर महीने का किराया करीब 18 से 20 लाख रूपए पड़ता है जबकि मुंबई से बाहर निकलते ही यह खर्च करीब 30 से 40 प्रतिशत कम हो जाता है। इसके अलावा जगह और समय के दबाव की वजह से एक्सक्लूजिविटी बनाए रखने के आसार भी काफी घट जाते हैं। वैसे भी जो धारावाहिक दर्शकों में लोकप्रिय हो जाते हैं, उनकी अवधि 2-3 साल तक की तो तय मान ही ली जाती है। ऐसे में नए धारावाहिकों के लिए उस बंधी हुई जगह में अपने लिए बुकिंग करवा पाना आसान नहीं होता। इसके अलावा क्षेत्रीय चैनलों का अपना दबाव भी लगातार बना रहता है। यही वजह है कि अब नयगाम, दहीसर, सीरा रोड, पोवाई के अलावादिल्ली,  शिमला, लखनई, आगरा और बड़ौदा को शूट के लिए चुना जाने लगा है।

लेकिन इनमें कई कंपनियां खुशनसीब भी हैं। जैसे कि बालाजी टेलीफिल्म्स लिमिटेड और बीएजी फिल्म्स एंड मीडिया लिमिटेड के अपने स्टूडियो हैं। माना जाता है कि एकता कपूर की बालाजी ने 10 अलग-अलग तरह के स्टूडियो बनवाने पर करीब 1200 करोड़ रूपए का खर्च किया है।

दरअसल फिल्म और टीवी मनोरंजन की दुनिया में जिस बड़े कलेवर के साथ उभरे हैं, उस में फिल्म सिटी की अहमियत और जरूरत और भी बढ़ जाती है। मुंबई स्थित फिल्म सिटी को महाराष्ट्र सरकार ने दादा साहब फाल्के को समर्पित करते हुए बनवाया था। दिल्ली से सटे नौएडा में 1987 में फिल्म सिटी के बनने से एक बड़ी राहत मिली। हैदराबाद का   रामोजी फिल्म सिटी यानी आरएफसी दुनिया का सबसे बङा फिल्म स्टूडियो परिसर माना जाता है लेकिन आज भी अभी भी देश भर में एक दर्जन से कम फिल्म सिटी हैं जो कि बढ़ती जरूरतों के सामने अब भी नाकाफी ही हैं।

शत्रुघ्न सिंह ने बहुत पहले बिहार की राजधानी पटना में 100 एकड़ की जमीन पर फिल्म सिटी बनाने का सपना प्रचारित कर खूब तालियां बटोरी थीं जिसे वे शायद आज खुद ही भूल गए हैं। इसी तरह 2005 में राजस्थान सरकार और जयपुर विकास प्राधिकरण ने जयपुर में फिल्म सिटी बनाने का ऐलान किया था लेकिन यह सिटी अभी फाइलों में ही दबी  है। पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने 20 करोड़ रुपये की लागत से तकरीबन 1,000 एकड़ जमीन पर फिल्म सिटी बनाने का ऐलान किया था। तब बीकानेर से लोकसभा पहुंचे अभिनेता धमेंद्र ने भी खासी सरगर्मी दिखाई थी, लेकिन बाद में सारा हवा हो गया।

फिलहाल इस साल फरवरी में हरियाणा के शहर मोहाली में फिल्म सिटी के निर्माण को मंजूरी मिल गई है और इससे पंजाबी फिल्मों के निर्माण को खासतौर से प्रोत्साहन के आसार बनेंगें। इसी तरह मध्यप्रदेश में भी फिल्म सिटी को बनाए जाने का सपना जगा है। इसके जरिए स्थानीय बोलियों और संस्कृति पर आधारित छोटी-छोटी फिल्में बनाने में सहयोग की बात कास तौर से कही गई है।

दरअसल टेलीविजन और फिल्मों की लोकप्रियता की बात तो खूब होती है लेकिन कार्यक्रमों या फिल्मों के निर्माण से जुड़ी जरूरतों पर चर्चाओं का माहौल हमारे यहां कम ही बनता है।
एक मामूली सी दिखने वाली जगह थोड़ी सी मेहनत, दिमागी संयोजन और तकनीकी सम्मिश्रण से कमाल कर सकती है। फिल्म सिटी इसी का नाम है। सालों से फिल्म और टीवी की सफलता का मापदंड तय करने में सेट बहुत आगे रहे हैं। इनके अपने फायदे भी हैं। सबसे बड़ा तो यही कि टीवी पर एक ताजगी  का भान मिलता है, स्थानीय कलाकारों को मौका मिलने की गुंजाइश बनती है, वहां नया व्यवसाय पनपता है, आम लोगों को मुफ्त में टीवी को समझने का अवसर मिलता है और धारावाहिकों में स्थानीय पुट की छौंक लगने की संभावना बनती है।

बेहतर हो कि दुनिया के सबसे बड़े मनोरंजन क्षेत्र को ऊर्जा और समर्थन देने में राज्य सरकारें अब पहल करें।

(यह लेख 11 अप्रैल, 2011 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ)

Apr 5, 2011

मीडिया के मॉल में धर्म की बंपर सेल

अंग्रेजी आउटलुक के 14 मार्च के अंक के केंद्र में बाबा रामदेव हैं। आत्मविश्वास से लबरेज केसरिया चोगे में बाबा के बैकड्राप में संसद भवन है। कहानी का सार कहने के लिए वैसे तो यह तस्वीर ही काफी है लेकिन इसके बावजूद अंक ने एक बहस को जन्म दिया है। बहस का मुद्दा है कि क्या बाबा को राजनीति में होना चाहिए। आउटलुक जैसी तमाम बड़ी पत्र-पत्रिकाएं पिछले कई दिनों से इस बहस से जूझ रही हैं कि योग गुरू को खुद को योग तक ही सीमित रखना चाहिए या राजनीति के मैदान में उतर कर एक नई तरह की राजनीतिक कपाल भाति को जन्म देना चाहिए।

सवालों की यह नई उगी फसल बाबाओं के उस बढ़ते वर्चस्व की कहानी कहने के लिए काफी है जो एक दशक में महाकाय हो गई है और इस काम में टेलीविजन ने बाबाओं की ताकत बढ़ाने के कैप्सूल का काम बखूबी निभाया है।

बिकता क्या है, कहां है और कैसे है - टेलीविजन का बाजार इन सवालों के आसपास घूमता है और अपने लिए जमीन बनाता है। बाजार की परिभाषा कुछ भी हो सकती है। बाजार उस दर्शक का है जिसके लिए यह सारा सच या फिर भ्रम या फिर यह खेल रचा जा रहा है। अगर उसकी तालियां नसीब तो मतलब खेल सराहा गया नहीं तो खेल के नियम-कानून या फिर हो सकता है कि पूरा खेल ही बदलना पड़े।

इस खेल का एक दूसरा मालिक भी है, बल्कि वही सच्चा अन्नदाता या अन्नपूर्णा है। वह है – विज्ञापनदाता जिसकी तिजोरी से सिक्के झरते हैं तो चैनल चलता है। चैनल की सांस का उदगम वही है। यही स्रोत चैनल की गति-दशा, दिशा और भविष्य तय करता है, बाकी बातें उसके बाद आगे सरकती हैं और आकार लेती हैं। ताजा आंकड़े कहते हैं कि 2014 तक भारत में मीडिया और मनोरंजन क्षेत्र 13 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से फैलेगा। इसमें धर्म और आध्यात्म की भी एक जोरदार भागेदारी होगी। मीडिया में बढ़ती इस भागीदारी के पीछे एक लंबी कहानी है, एकदम फिल्मी।

साल 1975 एक नया अध्याय खुलने का साल। इस साल एक छोटे बजट की फिल्म आती है, भूले-बिसरे या फिर एकदम अनजाने कलाकारों के साथ लेकिन वह इतनी सफल होती है कि वह उस दौर की शोले और दीवार की टक्कर में लोकप्रियता हासिल करने में सफल हो जाती है। यह फिल्म थी जय संतोषी मां। फिल्म लोगों में ऐसी धार्मिकता का प्रवाह करती है कि सैंकड़ों दर्शक थियेटर में प्रवेश करने से पहले अपने जूते बाहर उतार कर जाते थे ताकि देवी मां का अपमान हो। उनके लिए थियेटर किसी मंदिर से कम नहीं था। फिल्म में जब भी देवी के दर्शन होते, वे परदे पर सिक्कों और फूलों की बरसात करने लगते और बार-बार सिर नवाते। फिल्म इस विश्वास या अंधविश्वास पर टिकी रहती है कि संतोषी मां का व्रत करने से महिलाओं की सारी परेशानियां दूर हो सकती हैं। ऐसा करके वे उस आदर्श जीवन को पा सकती हैं जिसकी वे हमेशा कामना किया करती हैं। इस फिल्म की सफलता ने तब एक नए दरवाजे के खुलने की संभावना की राह दिखा दी।    

अब सीधे चलिए 80 के दशक में। यह जमाना दूरदर्शन का था। दूरदर्शन के जन्म के 28 साल बाद रामायण और बाद में महाभारत के प्रसारण ने इस बात की जैसे बुनियाद ही रख दी कि भारतीय दर्शक धर्म को टीवी पर देखने के लिए लालायित है। रविवार 25 जनवरी 1987 को सुबह 9:30 बजे जब रामायण की पहली कड़ी ऑन एयर होती है तब किसी को उम्मीद तक नहीं थी कि 31 जुलाई 1988 तक ठीक इसी समय हर रविवार को देश भर की गलियांसड़केंमंदिर और बाज़ार सूने हो जाया करेंगें, ट्रेनेंबसेंट्रक अगले 35 मिनट तक जहां के तहां रुक जाएंगे और एक तरह से पूरा देश ही थम जाएगा। रामायण के प्रसारण से कुछ देर पहले लोग इसे देखने के लिए जुटने लगते। दुकानों और घरों में लगे टीवी के सामने भीड़ लग जाती। अनजाने लोग भी किसी की बैठक में रामायण के दर्शन करने के लिए जगह पा ही जाते। यह रामायण फीवर का अदभुत दौर था। [1]

सारे दिन चाहे बिजली कितनी ही आंखमिचौली करती लेकिन इस समय वह मुस्तैद रहती ही। बैटरी और जनरेटर जरूरत के समय के लिए तैयार रखे जाते और ऐसा हर प्रयास किया जाता कि बिना व्यवधान के इसे टकटकी लगा कर देखा जा सके। लोग पूजा की थाली के साथ सीरियल के कलाकारों की आरती उतारते। महाराष्ट्र की लोकेशन पर शूटिंग करने वाले इन कलाकारों को भगवान समझने वाले दर्शकों की भीड़ से बचाना एक मशक्कत भरा काम होता। ऊपर से कलाकारों को हर समय अपने किरदार का रंग बरकरार रखना होता था वरना भीड़ की श्रद्धा को आक्रोश में बदलते देर नहीं लगती थी। 78 एपिसोड वाले इस सीरियल के प्रोड्यूसर/डाइरेक्टर थे चंद्रमौलि चोपड़ा उर्फ रामानंद सागर। 

रामायण में राम और सीता का किरदार निभाने वाले किरदार तो पहले दिन से ही भगवान की नजर से देखे जाने लगते हैं। इन किरदारों को निभाने वाले आम कलाकार थे जो इससे पहले तक इंडस्ट्री में स्ट्रगल ही कर रहे थे लेकिन इन धारावाहिकों से जुड़ते ही वे पूजनीयमाननीय और श्रद्धेय की उपाधि पा जाते हैं। कैकेयी का किरदार निभाने वाली पद्मा खन्ना को लोग वाकई उसी टेढ़ी नजर से देखने लगते हैं। मंथरा का किरदार निभा रही ललिता पवार को देख कर लोगों के मुंह का स्वाद कसैला होता है। वनवास गमन को जब राम, लक्ष्मण और सीता जाते हैं तो बहुत से दर्शकों के घर खाना नहीं बनता। रेलगाड़ियां और बसें रोक कर लोग इन धारावाहिकों को टकटकी लगाकर देखते हैं और मानने लगते हैं कि यह धारावाहिक अनंत चलेगा।

तो एक दृश्य टीवी के अंदर चलता है, एक बाहर। रामानंद सागर रामायण को 78 धारावाहिकों में बांधते हैं। टीवी पर दिखने वाले शॉट्स रिकार्डिड हैं। इसमें दिखने वाले हर क्षण के लिए सोची-विचारी योजना बनाई गई है। प्री प्रोडक्शन पर दर्जनों दिमाग लगे हैं। बाकायदा संवाद लिखे गए हैं। कड़ी मशक्कत से किरदारों का चुनाव किया गया, लोकेशन ढूंढी गई, सेट बने, तमाम रसों के सम्मिश्रण का करतब किया गया, संगीत और संगीतकारों का चयन हुआ, उन पर पोस्ट प्रोडक्शन हुआ, तब जाकर एक महाकाव्य टीवी पर साकार रूप में उभर कर सामने आया। 

सागर खेमे की रामायण ने महाभारतविश्वामित्रबुद्धलवकुशकृष्णाचाणक्य और भारत एक खोज जैसे सीरियलों की प्रेरणा दी। लेकिन इस स्तर की लोकप्रियता को सिर्फ चोपड़ा कैंप का महाभारत ही छू सका। 1988 से 1990 तक प्रसारित हुए इस सीरियल के निर्माता बी. आर. चोपड़ा और निदेशक रवि चोपड़ा थे। 94 हफ्तों का यात्रा तय करते हुए महाभारत भारतीय समाज के मानस पर गहरे उतरता है। इसकी प्रसिद्धि का आलम यह रहता है कि बीबीसी भी इंग्लैंड में इसे दिखाने के लिए बाध्य हो जाता है। इस में समय के रूप में हरीश भिमानी के कथन और आवाज अतीत की सुनहरी गलियों में ले जाते हैं। रामायण के मुकाबले इसका एक एपिसोड 45 मिनट का होता था। चोपड़ा के महाभारत का देश के बाहर भी प्रसारण हुआ। ब्रिटेन में बीबीसी ने इसे इंग्लिश सब-टाइटल के साथ दिखाया और इसे तरीब 50 लाख दर्शकों ने चाव से देखा। इस धारावाहिक ने 96 फीसदी की व्यूअरशिप का रेकॉर्ड बनाया जो गिनीज बुक ऑफ रेकॉर्ड्स में दर्ज है। आज की तुलना में भले ही इन सीरियलों का तकनीकी पक्ष कमज़ोर होबहुत बेहतरीन साउंड और ग्राफिक्स के इफेक्ट्स का इस्तेमाल भी भले ही किया गया हो फिर भी इसने दो दशक पहले भारतीय दर्शक और भारतीय चैनलों की एक दिशा को जैसे तय कर दिया। भारतीय सभ्यतासंस्कृति और इतिहास से जोड़ने की इस कोशिश ने दूरदर्शन को लोकप्रियता तो दी ही, साथ ही उसकी तिजोरी भी लबालब भरी।

धारावाहिक लोगों की जिंदगी का हिस्सा बन जाता है। उसका बेसब्री से इतंजार होता है। जिस कथा के मूल सार को सैंकड़ों भारतीय पहले से जानते थे, वे भी इस यात्रा से जुड़ जाते हैं। टीवी का छोटा सा परदा रामायण और महाभारत जैसी पौराणिक और अति सम्मानित कथा को ऐसा जीवंत रूप दे देता है कि लगता है कि नए युग के हिसाब से इनकी एक नई पैकेजिंग ही कर दी गई हो। कैलेंडर, किताबों के कवर, सीडी, कैसेट, पेन, कपड़े, मालाएं –सब जैसे एकाएक धर्ममय हो उठते हैं। धारावाहिक में द्रौपदी का चीरहरण दिखाए जाने के कुछ दिनों बाद ही गुजरात का एक व्यापारी द्रौपदी नाम की साड़ी बाजार में उतार देता है। निसंदेह यह साड़ी द्रौपदी के चीर की तरह अंतहीन तो नहीं होती लेकिन यह बिकती खूब है।

साबित हो जाता है कि विकासशील होने के रास्ते पर तेजी से अग्रसर होने के बावजूद भारतीयों के  मन के किसी कोने में अपनी सांस्कृतिक-धार्मिक विरासत के भूलते जा रहे पन्नों से जुड़े रहने की तीव्र उत्कंठा है। वह चाहता है कि आने वाली नस्लें इन्हें पूरी तरह से याद रखें और सहेज कर रखें। इन धारावाहिकों के प्रसारण ने इस बात की भी पुष्टि कर दी कि यह विषय पुराने नहीं पड़े हैं और इन्होंने दूरदर्शन के फीके पड़ते-से चेहर को भी एकाएक चमक से भर दिया। हफ्ते-दर-हफ्ते फैली हुई यह मनमोहक यात्रा दूरदर्शन को सबका दुलारा बना देती है। यहां यह सच भले ही दब गया हो कि इनमें से किसी भी धारावाहिक को, तमाम संसाधनों और सुविधाओं के बावजूद, दूरदर्शन ने खुद तैयार नहीं किया था। लेकिन जनता का इससे कोई सरोकार नहीं था। जनता को इन धारावाहिकों की वजह से बुद्धू बक्सा एकाएक बहुत समझदार, धीर-गंभीर और संस्कृति और धर्म का संवाहक और बहुत परंपरावादी लगने लगा। इस तरह धर्म के लिए एक नए चलते-फिरते रूप की जमीन तैयार हो गई।

इसकी सफलता पूंजी के बाजार को कई आइडिया देती है। रामायण और महाभारत का जो प्रसारण पहले विज्ञापनों की उपस्थिति भर ही देखता है, वह कुछ ही हफ्तों में जैसे उनकी मौजूदगी तले जैसे दब जाता है। पैसे का बाजार एकाएक स्फूर्ति से भर उठता है। टीवी की लोकप्रियता उत्पाद के प्रमोशन की वजह और हथियार बनकर सामने आती है। देश में फैली इस लहर को महसूस कर  संडे टाइम्सलंदन ने लिखा- पिछले 50 सालों में राष्ट्रीय एकता का ऐसा कोई दूसरा उदाहरण नहीं देखा गया है जब पूरा देश टेलीविजन सेटों के आगे घुटने टेक कर बैठ गया हो। रामायण ने अपने प्रसारण से जून 2003 तक दुनिया के सबसे ज़्यादा देखे जाने वाले सीरियल के रूप में लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में जगह पाई। [2] 

बहरहालयह धारावाहिक महज धार्मिक सीरियल नहीं था। इसमें सच और झूठ की शाश्वत लड़ाई का आंखों देखा हाल था। दर्शक इसे देख कर खुद को इसका हिस्सा महसूस कर रहे थे। उनके लिए इसने एक बुजुर्ग और सच्चे पथ-प्रदर्शक की भूमिका भी निभाई। इसीलिए यह किसी धर्मजातिवर्ग या उम्र तक सीमित नहीं था। इसके असर का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि जिस एपिसोड के अंतिम सीन में भगवान राम और लक्ष्मण को नागपाश में बंधा हुआ दिखाया गयासैकड़ों लोगों ने अगले एपिसोड तक सात दिन का उपवास यह कह कर किया कि जब हमारे भगवान बंदी बनें हों तो हम कैसे सुख से रह सकते हैं। दर्शकों की जिज्ञासा को जगाए रखने के लिए सागर की इस तरकीब की काफी आलोचना भी हुई। 

यह धारावाहिक कलाकारों को सितारा बना डालते हैं, उनकी किस्मत का सितारा रातों-रात चमक उठता है और बढ़ जाती है उनकी फीस, रूआब और नखरा। सीता का अभिनय करने वाली दीपिका चिखालिया और कृष्ण की भूमिका करने वाले नीतिश भारद्वाज– राजनीति में भी उतर आते हैं। यहीं से जैसे टीवी के स्टारडम की नींव भी पड़ जाती है।

टीवी पर धर्म के इन नगाड़ों के बजने का एक सीधा प्रभाव यह भी पड़ता है कि भारतीय टीवी के बाजार में धर्म की पकड़ पुख्ता होने का साथ ही धर्म की वैरायटी पर चिंता-चिंतन-विमर्श होने लगते हैं। अखबारों में राशिफल पढ़ने वालों के लिए उदारवाद का दौर और निजी चैनलों की पैदाइश धर्म के भरपूर दिखने के साथ ही भरपूर बिकने की संभावनाएं भी बना लेती है। एनडीटीवी गुड मार्निंग इंडिया में शमशेर लूथरा से कविताई अंदाज में रोज राशिफल सुनाता है। यहां जोर इस पर रहता है कि इसे रोचक, सरस और चुस्त कैसे बनाया जाए। ऐसे कई प्रयास भारत में धर्म पर आधारित चैनलों के गर्भधारण का माहौल बना देते हैं। साल 2000 में आस्था देश का पहला धार्मिक चैनल बन कर उभरता है।

2006 तक समूची टीवी की व्यूअरशिप में धार्मिक और आध्यात्मिक चैनलों की जो भागेदारी महज 1 प्रतिशत होती है, वह 2007 आते-आते यह 2.8 प्रतिशत को पार कर जाती है। इन चैनलों का सीधा मुकाबला संगीत चैनलों से होता है जिनकी व्यूअरशिप 2 से 2.5 प्रतिशत के बीच थी।[3] इन चैनलों ने पहले तो खुद को धार्मिक प्रवचनों, संवादों, सेहत, जीवन शैली और धार्मिक संगीत से जोड़ कर सीमित समय तक प्रसारण किया लेकिन फिर बहुत जल्द ये खुद को चौबिसिया घंटे के चैनल का आकार देने में कामयाब हो गए। ये अपने छोटे से अनुभव के दायरे में जान गए कि भारत के टीवी के बाजार में कई सालों तक खबरिया चैनलों का हिस्सा 15 प्रतिशत के आस-पास ही रहेगा, बाकी के कुछ हिस्से पर अपना दिमाग खपा कर ये अपनी पक्की जगह सुनिश्चित कर सकते हैं और ठीक वैसा ही हुआ भी। इन चैनलों को अपनी बाहशाहत कायम करने में कोई ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ी।

तो भारत में भावनाएं और संवेदनाएं बिकती हैं, इसकी जमीन 80 के दशक में ही तैयार हो गई थी। धर्म पर आधारित धारावाहिकों ने बड़ी सहजता से सहमति को बनाने के वातावरण की नींव रख दी तो जनता की हामी का हरा सिगनल भी मिल ही गया। यह बात साबित हो गई कि मानसिक तरंगों को छूने वाले तारों को जनता मन से ही देखती और सराहती है। वहां तकनीकी जादूगरी से बड़ी ताकत होती है-संवेदना का जुड़ना। धर्म काफी हद तक दिल ही का मामला है। मिथ रिएलिटी जैसे अंदाज में चाश्नी में लिपट कर जब सामने आते हैं, तब भी उन्हें दिमागी तराजू पर तौला नहीं जाता। वे पहले दिल में पहुंचते हैं और फिर दिमाग भी दिल से निकले फरमान पर अपनी मुहर लगा देता है या फिर मुहर लगा देने की औपचारिकता भर निभा लेता है। मजे की बात यह भी है कि यह सब परोसने वाला इस बात से पूरी तरह  वाकिफ है कि जिस दर्शक से उसका पाला पड़ना है, वह मीडिया के अनगिनत उत्पादों का लगातार सेवन कर रहा है। इसलिए उसे लुभाने का फार्मला सीधा-साफ और सोचा-विचारा होना चाहिए ताकि वो चारों खाने चित्त हो। साथ ही अगर कोई ऐसा फार्मूला मिल जाए जिससे सर्वमान्य,सर्वस्वीकृत मान्यता को हवा मिलती हो तो सोने पे सुहागा खुद खुद ही लग जाता है।

नए सामाजिक परिदृश्य को अतीत की कड़ी से जोड़े रखने में इन चैनलों का कोई सानी नहीं हो सकता।

 

भारत में आध्यात्मिक चैनल

निजी चैनलों ने बाजार में आते ही तुरंत तो धर्म का दामन नहीं थामा लेकिन धीरे-धीरे हालात करवटें लेते गए। पहले खबर का बाजार ज्यादा गर्म रहा। खबर दिखाने की अनुमति भर ने निजी चैनलों में ऐसा अति उत्साह से भरा कि शुरूआती कुछ साल उसी भाग दौड़ में गुजर गए।

90 से 2000 के बीच जब बाजार सास-बहुओं के नाटकों से सराबोर था और द्रौपदी के चीर की तरह इन धारावाहिकों का अंत होता नहीं दिख रहा था, तब टेलीविजन के बाजार में एक अनोखी उथल-पुथल होने लगी जिसका नतीजा था- 2000 में देश के पहले आध्यात्मिक चैनल आस्था का जन्म। शुरूआती दौर में आस्था जैसे कई चैनलों का पहला मकसद अप्रवासी भारतीयों में अपनी पैठ पहुंचाना था। चैनल जानते थे कि रामायण और महाभारत ने कैसे भारत से बाहर रह रहे भारतीयों को भावुकता से भर दिया था और कैसे वे भारतीय जड़ों में अब भी अपना वजूद खोजते हैं। ऐसे में धर्म में लिपटा कोई भी चैनल उनके दिल के तार छेड़ सकता था। भारतीय संस्कृति से खुद को जोड़े रखने की भूख और अपनी अगली पीढ़ियों को धर्म की संवेदनाओं से परिचित बनाए रखने के लिए ये अप्रवासी हमेशा ही लालायित रहे। उनकी इस भूख का जवाब ये चैनल थे। वैसे भी एक लंबे समय तक इस डायसपोरा के लिए भारतीय बुद्धू बक्से में परोसने के लिए कुछ भी विशेष था नहीं और एक सच यह भी था कि इस हिस्से के पास विदेशी पूंजी भी थी और ललक भी। बस, यही एक समझ बाजार में एक नए उत्पाद के पनपने की ऐतिहासिक वजह बन गई।

तो भारत में 2000 में आस्था पहले आध्यात्मिक चैनल के तौर पर उभर कर आता है। आस्था के बाद कई और धार्मिक चैनल बाजार में उतरे जिनमें संस्कार,जागरण,साधना, प्रज्ञा और धर्म हैं। इसी समय क़रीब एक दर्जन छुटभइए धार्मिक चैनल भी सक्रिए हुए जो धनाभाव और इच्छाशक्ति की कमी से कभी-कभार ऑफ़-एयर भी होते रहे। उसके बाद तो जीवन, गॉड, महर्षि वेद विजन, मिराकल नेट, एटरनल वर्ल्ड टेलीविजन नेटवर्क, अहिंसा, अमृता - जाने कितने धार्मिक चैनलों की बाढ़ दिखाई देने लगती है।

अपनी संतरी रंग की साइट में आस्था चैनल देश का नंबर 1 सामाजिक-आध्यात्मिक-सांस्कृतिक नेटवर्क होने का दावा करता है। साइट में कहा गया है कि चैनल की पहुंच 30 मिलियन घरों में है और इसे 200 मिलियन से ज्यादा दर्शक देखते हैं। हिंदी, अंग्रेजी और गुजराती – इन तीनों भाषाओ में कार्यक्रम प्रसारित करने वाले इस चैनल के स्टार मुरारी बापू हैं जिनके प्रवचन आम तौर पर गुजरात के शहर नादियाड से लाइव दिखाए जाते हैं।[4]

संस्कार चैनल भी इसी से मिलते-जुलते रंग की साइट में पहले पन्ने पर धार्मिक वीडियो दिखाता है। चैनल दावा करता है कि यह भारतीय सांस्कृतिक विरासत से जुड़ी प्रोग्रामिंग के साफ्टवेयर का सबसे बड़ा प्रोड्यूसर है। चैनल के लक्ष्यों में यह साफ लिखा है कि यह चैनल हिंदू भजन, कीर्तन, आरती, कीर्तन, आराधना और बड़े संतों के आध्यात्मिक वचन सुनाने के लिए प्रतिबद्ध है। इसके अलावा इसमें मंदिरों में पूजा, धार्मिक अवसरों पर विशेष कार्यक्रम, एनिमेट की हुई धार्मिक फिल्में, आयुर्वेद, योग और स्वस्थ जीवन पर कार्यक्रम दिखाए जाएंगें।[5]

साधना चैनल में इन सबके अलावा धार्मिक सीडियों के विज्ञापन भी देखे जा सकते हैं। अंग्रेजी से हिंदी में अनुवादित सीडी 900 रूपए में भी मिल सकती है। .

अमृता टीवी का उदघाटन तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय रवि शंकर प्रसाद ने माता अमृतानंदमयी की 50वीं वर्षगांठ ने किया था। चैनल ने दावा किया कि इसका मकसद भरीपूरी प्रोग्रामिंग को परोसना है जो मूल्यों और संस्कृति पर आधारित होगी। मलयालयम भाषा में शुरू हुए चैनल का इरादा दूसरी भाषाओं से भी जुड़ने का है। सामाजित-धार्मिक ज्ञान के अलावा यह चैनल लोगों के आत्मविश्वास में बढ़ावा की बात भी करता है। यहां अहं से आगे जाकर बड़े परिप्रेक्ष्य की बात की जाती है।

धर्म चैनल तो भजन संग्राम के नाम से देश का पहला धार्मिक संगीत आधारित टेलेंट हंट कार्यक्रम ही शुरू कर डालता है।

बाजार का आकलन करने वाले यह जानने लगते हैं कि जो लोग आध्यात्मिक चैनल देखते हैं, वे बहुत ज्यादा चैनल सर्फिंग नहीं करते। उनमें सिर्फ न्यूज या मनोरंजन आधारित चैनल देखने वाले दूसरे दर्शकों की तुलना में ठहराव और गांभीर्य ज्यादा होता है। यही वजह है कि धार्मिक चैनलों पर दर्शकों की प्रतिक्रिया देने की गति और तरीका भी जरा अलग हटकर ही होता है। रामायण या महाभारत से लेकर उत्सव और त्यौहारों का टीवीकरण अपनी जगह बना लेने में हमेशा ही सफल रहा है और कभी भी कट्टर आलोचना का शिकार नहीं बना है। यहां सुविचारित तरीके से बनाया गया योग, सत्संग, पर्वों, जागरणों और गुरूओं का संयोग इस पूरे पैकेज को बिकाऊ, टिकाऊ, रसाऊ और दुहाऊ बनाता है।

 

विज्ञापन का बाजार


अध्यात्म, समाज सुधार, विकास, नैतिकता, शांति –आम तौर पर इन चैनलों की शुरूआत के कारण यही बताए जाते हैं लेकिन इसके बावजूद यह बाजार अशांत की वजह बनते कारकों से अछूता नहीं। जाहिर है इनमें पैसा प्रमुख है। विज्ञापनदाता यह समझ गए हैं कि यह एक ऐसा बाजार है जिसमें अनंत, संभावनाएं हैं और अभी इनके रोशनदान भी ठीक से खुले नहीं हैं। टैम की साथी एजेंसी एडैक्स ने भी यह स्वीकार किया है कि इन चैनलों पर विज्ञापनों का प्रवाह तेज हुआ है। वही कंपनियां जो 2005 तक इनके वर्चस्व को लेकर विश्वस्त नहीं थीं, एकाएक अपने रास्ते को बदलने लगीं। यही वजह है कि अगरबत्ती, पत्थरों, मालाओं के विज्ञापन दिखाते इन चैनलों में एयरलाइंस, बैंक, टायर, लोशन, योगा मैट और खान-पान उतर आया। एकाएक विज्ञापनदाता इन चैनलों पर 5.71 लाख रूपए खर्च करने लगे। बाकी चैनलों की तुलना में भले ही यह मामूली हो लेकिन तब भी सच यह भी है कि इन चैनलों में विज्ञापन के लिए जगह जुटाना आसान भी है और सस्ता भी। प्रति दस सेकेंड यहां महज कुछ लाख रूपयों में एक पूरे अभियान को खड़ा किया जा सकता है और किसी को भी धर्म गुरू, पथ-प्रदर्शक या परमज्ञानी बनाया जा सकता है। इसी का नतीजा है कि गुरूओं की एक भरी-पूरी फौज यहां दिखने के लिए आतुर दिखाई दे रही है। ब्रांड की एक नई हाट लग गई है – रंगीन, स्मार्ट और फास्ट।

विज्ञापन के बाजार को सामाजिक बदलाव के बारीक तारों से जोड़ा जा सकता है। चैनलों के खेत पर उत्पादों की बारीक मंडी प्रतिस्पर्द्धा का उवर्र माहौल पैदा करती है। एड स्पेस खरीदने और बेचने वाले कई खिलाड़ी मानते हैं कि इन चैनलों पर विज्ञापनों की विविधता की एक बड़ी वजह इनके प्रति दस सेकेंड के रेट कार्ड की कीमत का काफी कम होना है। यही वजह है कि कम बजट पर बनने वाले प्राकृतिक उत्पाद भी यहां अपनी जगह बना पाते हैं। फिर यहां प्राइम टाइम की परिभाषा भी दूसरे चैनलों से अलग है। यहां प्राइम टाइम सुबह 4 से 7 है। शाम में 4 से 7

विज्ञापन ने बाजार ने तुरंत इस महीन सच को पकड़ लिया कि इन चैनलों का पहला मकसद भारत के रास्ते विदेशों में अपनी पैठ जमाना भी है। इसलिए उन्होंने दरवाजे बहुत समझदारी से खोले।

आस्था का दावा है कि वह 160 देशों में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा चुका है। विदेशी बाजार में ग्राहकी शुल्क ने चैनल को शुरू से ही आश्वस्त बनाए रखा। नतीजतन अमरीका, ब्रिटेन, कनाडा, जापान, कोरिया, ताइवान, चीन, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, फिजी जैसे अनगिनत देशों में इस चैनल की पकड़ अब पक्की हो चली है। कहीं यह फ्री टू एयर हैं तो कहीं ये पेड चैनल के तौर पर देखा जाता है। इनमें से ज्यादातर चैनल एक ही साथ एक बड़ी कमाई का लक्ष्य बनाकर नहीं चलते। एक साल में 65 लाख की कमाई को भी यहां संतुष्टि से देखा जाता है, बावजूद इसके सच यही है कि आमतौर पर कमाई इससे कहीं ज्यादा होती है और वह भी आसानी से। टेलीशॉपिंग के लिए 24 घंटे खुली हुई लाइनें लाखों का व्यापार खींच कर लाती हैं। कुंभ मेला, गणेश चतुर्थी, महाशिवरात्री, जन्माष्टमी, नवरात्रे वगैहर के लाइव टेलिकास्ट की सफलता इन चैनलों का उत्साहवर्धन करती चली गई है। ऐसे तमाम छोटे-बड़े धार्मिक उत्सवों ने चैनलों में नई जान का संचार किया है और उन्हें बोरियत से घिरने से भी बचा लिया है। उत्सवों के पैकेज भी गहन विचार से बनाए जाते हैं। वैरायटी का ध्यान रखा जाता है।

समय के साथ यह भी सामने आया कि इन चैनलों की viewership किसी विशेष सामाजिक-आर्थिक या फिर आयु वर्ग तक ही सीमित नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि सिर्फ बुजुर्ग ही इनके प्रतिबद्ध दर्शक हैं जो उम्र की सांझ में इन्हें देख कर शांति पाने को लालायित हैं। टैम की मीडिया रीसर्च ने पाया कि जहां गॉड और साधना के सभी दर्शक 35 से ज्यादा आयु के हैं, वहीं आस्था को देखने वाले 46 प्रतिशत, संस्कार 41 प्रतिशत, जी जागरण के 60 प्रतिशत और कुरान टीवी के 53 प्रतिशत दर्शकों की आयु 35 से कम है। औसतन पाया गया कि धार्मिक चैनलों के देखने वाले 54 प्रतिशत की उम्र 35 से ज्यादा है, बाकी को इस उम्र से कम के लोग भी देखते हैं।[6] यही वजह है कि इन चैनलों के लिए विज्ञापनों के बाजार ने भी एक नई करवट लेने में समझदारी समझी। एयरलाइंस, सोना बाथ, वजन घटाने की स्टाइलिश मशीनें, जिम, जेवर और प्रसाधनों के विज्ञापन भी इन चैनलों में चले आए।

आस्था, साधना और संस्कार की कुल दर्शक संख्या का 33 से 39 प्रतिशत क्लास की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि का है। ऐसे में मुनाफे की गुंजाइश हमेशी बनी ही रहती है।

यहां बहुत कुछ बिकता है। हर्बल चाय, एक्यूपंचर, डायबिटीज या मोटापा घटाने की आयुर्वेदिक दवाएं, रत्न, मालाएं, फेंगशुई, वास्तु का सामान, अगरबत्ती, धूप, पूजा सामग्री, भजनों के सीडी, टेलीशापिंग के विज्ञापन, सकारात्मक सोच की किताबें, योग का मैट वगैरह। फिर बीते जमाने में चर्चित रहे बहुत से जाने-माने कलाकार भी कम कीमत पर विज्ञापन के लिए तैयार दिखते हैं।

 

न्यूज चैनलों में धर्म

इस साल 4 जनवरी को तकरीबन सारा दिन कई न्यूज चैनल यही बताते-समझाते रहे कि आंशिक सूर्य ग्रहण पर क्या करें, क्या करें। कब कौन सा मंत्र पढ़ें, क्या खाएं, क्या खाएं, आज क्या पहनें, ग्रहण के दौरान और बाद में क्या-क्या उपाय करें। दिशाओं का बोध दिया गया और धर्मकर्म के हिसाब से लंबी विवेचनाएं की गईं।

ये कहानियां ऐसी रोचक-सरस और क्रमवार कर दी गईं, ग्रहण के दौरान स्नान के इतनी बार विजुअल दिखाए गए और कथित आस्थाओं के ऐसे कलश सजा दिए गए कि सचिन का अपने करियर का 51वां टेस्ट शतक पूरा करना भी टीवी चैनलों की इस बाबानुमा आपाधापी को रोक नहीं पाया। सचिन पर ब्रेकिंग न्यूज आई, फोनो, वीओ हुए और फिर ग्रहण की डुबकी लगने लगी। सचिन चैनलों पर ग्रहण के खत्म होने और बाबाओं की अपनी दुकान के समेटने के बाद ही चैनलों पर पूरी तरह से हावी हो सके।

क्रिसमस या नए साल की शुरूआत में भी जब देश-दुनिया में गाजे-बाजे बज रहे होते हैं और तमाम चैनल खुमारी में ठुमक रहे होते हैं, तब भी वे यह ज्ञान देने से खुद को रोक नहीं पाते कि इस साल के पहले दिन क्या करना शुभ या अशुभ होगा। किस राशि के लिए यह साल खुशियां बरसाएगा, किसके लिए मातम आने की आशंका है। फिर उपायों की झड़ी लगाई जाती है कि क्या करने या करने से दुष्प्रभावों से बचा जा सकता है। कौन से रत्न कैसा कायापलट कर सकते हैं और किन रंगों से जिंदगी की कहानी ही बदल सकती है।

यह एक अजीब कहानी है। जिन चैनलों को खबर देने के लिए 24 घंटे का बने रहने की अनुमति दी गई थी, वे कई बार विशुद्ध खबर कम और कर्मकांड ज्यादा बताते हैं। इस काम में वे जितनी ताकत लगाते हैं, उसे देख कर कई बार आह निकलती है कि काश इतनी ताकत चैनल अपने कंटेट को परिष्कृत करने में लगा देते या फिर इतना पैसा उन पत्रकारों के कल्याण में लगा देते जो चैनल के स्वभाव के अनुरूप खबर की तलाश में दिनभर खाक छानते फिरते हैं। खबरिया चैनलों पर अध्यात्म की दुकान जब सजती है तो वह खबर की दुनिया की ही तरह त्वरित और गतिशील होती है। यहां फार्मूले जल्द बताए जाते हैं। नुस्खे आसानी से आजमाए जाने लायक और सभी को आसानी से समझ आने लायक होते हैं।

इसमें एक बात और मजे की है। इन्हें देखने वाले लोग खुलकर कहते नहीं कि वे इन्हें देखते हैं या बाबाओं के फार्मूलों का अनुसरण करते हैं। वे इस बात को छिपा कर रखते हैं। यहां जैसे स्टेटस आड़े जाता है। जैसे लगता है कि यह आधुनिक बनती छवि को खा ले। यही वे लोग हैं जो न्यूज चैनलों की टीआरपी को उस वक्त बढ़ा देते हैं जब बाबाओं के प्रवचन चरम पर होते हैं।[7]

चूंकि न्यूज चैनलों पर समय का भारी दबाव रहता है और न्यूज का स्वभाव भी है तेजी, ऐसे में इन चैनलों पर धर्म भी तेजी के साथ ही चलता है। न्यूज चैनलों पर धर्म अब चामात्कारिक रूप में है। यहां धर्म मिराकल करते चलता है। धर्म की गति यहां देखने लायक है। धर्म पहले कष्टों की बात करता है और फिर तुरंत उनके निवारण के सस्ते, आसान और जल्द किए जा सकने वाले उपाय बताता है। इसलिए किसी कहानी को यहां शुरू से लेकर उसके अंत तक समेट दिया जाता है। यहां हर बात पर नुस्खे-सलाहें दी जाती हैं और मैगी नूडल्स की गति से क्विकफिक्स फार्मूले।

यहां सेलिब्रिटी स्टेटस भी खूब करता है। सचिन तेंदुलकर या अमिताभ बच्चन अगर सर्वदोष निवारण के लिए किसी मंदिर विशेष में कोई पूजा करवाते हैं या अनिल अंबानी अपने जन्मदिन पर उज्जैन में महाका की पूजा करवाते हैं तो यह न्यूज की स्टोरी बनने के साथ ही धर्म पर आधारित एक भरपूर कार्यकम के लायक भी बनता है। इसका सीधा असर यह भी पड़ता है कि वह मंदिर एकाएक प्रसिद्धि की ऊंचाई पर पहुंच जाता है। सेलिब्रिटी की उस मंदिर में मौजूदगी की तस्वीरें मंदिर की वास्तविक शक्ति पर जैसे मुहर लगाने का काम करती है।  

खबरों के गर्मागर्म मोहल्ले में धर्म अब रविवार तक ही केंद्रित नहीं है। वह चाय की चुस्की है जिसका मजा किसी भी समय लिया जा सकता है।

यही वजह है कि न्यूज चैनलों पर पहले दिखाए जाने वले साप्ताहिक कार्यक्रमों को अब बहुत से खबरिया चैनलों ने दैनिक कार्यक्रमों में तब्दील कर दिया है। स्टार न्यूज तो हर रोज दिन में तीन बजे समर्पण ही दिखाने लगा। इसकी लोकप्रियता को देखते हुए बाकी न्यूज चैनलों ने भी अपने कार्यक्रमों के तेवर और कलेवर बदले। इसका एक असर यह हुआ कि अब कंटेट कसा हुआ तो रहा लेकिन उसकी क्वालिटी पूरी तरह से चकाचक नहीं रही। सब जगह बस धर्म को तुरत-फुरत दिकाने की जैसे मुहिम ही चल पड़ी। कहीं जय संतोषी मां, साईं बाबा पर धारावाहिक बन गए तो कहीं दिल का द्वार, अमृत वर्षा जैसे कार्यक्रम शुरू कर दिए गए। शक्तिपीठों पर धारावाहिक चल पड़े। वैष्णो देवी को एकाएक बिजनस माडल बना दिया गया। आज तक अनजान मंदिरों को खोजबीन कर उन पर कार्यक्रम बनाने लगा। विशेष अवसरों पर मंदिरों के बाहर ओबी वैनों के हुजूम लगने लगे। ईटीवी अष्टविनायक के दर्शन कराते हुए लोगों के नाम से निजी पूजा को टीवी पर दिखाने लगा। स्टार यात्रा और गुरूकुल दिखाने लगा और सीएनईबी तो अपने चैनल पर गुरबाणी का लाइव प्रसारण ही करने लगा।

 

दर्शक की राय में

टीवी प्रोग्राम नहीं, दर्शक बनाता है। टीवी सामाजिक तौर पर रचा गया नाटक है। यह अभिनीत भी हो सकता है और लाइव भी। टीवी का परदा आदतों और स्वभाव को परिचालित तक कर सकता है, पूरी तरह से बदल भी सकता है। नए समीकरण मीडिया का सेवन उसकी रोज की डाइट है। वैसे भी चैनलों के लिए उत्पाद तैयार करते समय नए बाजार के बदलते स्वाद पर सबसे ज्यादा जोर रहता है। समय बदल रहा है। माना जा रहा है कि अब आध्यात्म की उम्र भी बदल गई है। अब 50 या 60 पार होने पर ही अध्यात्म याद नहीं आता। 25 के किशोर बहुत तेज उत्कंठा के साथ खुद को धर्म से जोड़ने लगे हैं और 30 को छूते-छूते तो वे पूरी तरह से धर्म में डूबने लगते हैं। वे तनाव में हैं। उनके लिए अध्यात्म शांति देने वाले आश्रम का काम करता है

ये चैनल दर्शक की आस्था की सीढ़ी बनते हैं, उनके भाग्विधाता होने का पुख्ता दावा करते हैं, पथ प्रदर्शक बनते हैं और एक ऐसे बादशाह के तौर पर खुद को स्थापित करते हैं जिसका खजाना खुशियों की अशर्फियों से लबालब है। घर बैठा दर्शक सरल-सुगम अंदाज में बतियाते बाबा लोगों को देखकर मंत्रमुग्ध होने लगता है।

शैलजा वाजपेयी इन्हें टीवी के मनोवैज्ञानिक मानती हैं। इन मनोवैज्ञानिकों के पास जैसे हर समस्या की चाबी है। ये आशा से लबालब दिखते हैं। ये वह सब शांत भाव से कहते जाते हैं जिसे युवा सुनना चाहता है।

 

अलग धर्मों के चैनल

धार्मिक चैनल दुनिया के अलग-अलग कोनों में अपनी पहचान का सिक्का जमाने लगे हैं। 2010 में मलेशिया में इस दिशा में एक अनूठी पहल की जाती है। अमरीका के अमरीकन आइडल और ब्रिटेन के एक्स फैक्टर जैसे रिएलिटी कार्यक्रमों की तर्ज पर मलेशिया का टीवी चैनल एस्ट्रो ओएसिस एक लाइव रिएलिटी प्रोग्राम इमाम मुदा के नाम से शुरू करता है। यह चैनल इस्लाम की जीवन पद्धति पर आधारित है। दस हफ्ते तक चलने वाले इस शो का मकसद होता है -10 युवाओं में से सबसे योग्य युवक का चयन करना जिसे कि बाद में इमाम बनाया जा सके। यहां योग्यता के मायने इस्लाम की समझ के अलावा बात-चीत, पहनावा और जनसंपर्क भी था। चैनल ने एक ऐसा इमाम तलाशने की उम्मीद जताई जिसमें पश्चिम की आधुनिकता के साथ ही धर्म को युवाओं के साथ जोड़ने की भी क्षमता होगी। यह दावा किया  गया कि इसके जरिए देश में इस्लाम की जड़ें और मजबूती हासिल करेंगीं और युवाओं का धर्म के प्रति आकर्षण बढ़ेगा। इन 10 युवाओं को 1000 प्रतियोगियों में से चुना गया था और फिर लाइव रिएलिटी शो इन्हीं 10 युवाओं पर केंद्रित कर दिया गया।  

एकदम ताजे कांसेप्ट से सामने आए इस शो में युवा प्रतियोगी नाचे-गाए नहीं बल्कि वे कुरान की आयतें सुनाते दिखाए गए। पहले चरण में सभी प्रतियोगियों को इस्लामी रीति-रिवाज से शव को नहलाने और दफनाने की रीति करनी पड़ी और यह शपथ भी लेनी पड़ी कि वे मलेशिया के युवकों को अनैतिक सैक्स और ड्रगों के सेवन से बचाने की कोशिश करेंगें। बाद के एक एपिसोड में इन युवाओं को एक अविवाहित गर्भवती को समझाने का दायित्व भी सौंपा गया। इस शो के प्रतियोगियो की उम्र 18 से 27 साल के बीच थी और ये हर हफ्ते बेहतरीन कपड़ों में, आत्म विश्वास से लबरेज दिखाई देते। ये धर्म और कर्म की बात करते हुए यह साबित करने की पुरजोर कोशिश करते कि वे इस्लाम के गहरे जानकार हैं। वे जानते थे कि जो जीतेगा, वो सिकंदर मलेशिया का सर्वोत्तम इमाम बना दिया जाएगा।

दुनिया में पहली बार किए जा रहे इस प्रयोग की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि प्रसारण के पहले हफ्ते में ही फेसबुक पर स्टार हंट पर तकरीबन रोजाना रिपोर्टिंग करने लगा। शो के प्रशंसक मानने लगे कि इसने उदारवाद को एक रूप में सामने लाकर खड़ा किया है। दूसरे, इस बहाने मलेशिया जैसे उदारवादी देश को एक युवा और स्मार्ट इमाम मिलेगा और इससे दुनिया भर में इस्लाम में और खुलापन लाने का संदेश भी जाएगा। चैनल इस शो को एक तरह के आध्यात्मिक भोजन की तरह प्रचारित करने लगा। लेकिन ऐसे कई आलोचक भी थे जिन्होंने इस प्रयोग को गैर-इस्लामी और -गंभीर प्रयोग कहते हुए इसे आने वाले समय में इस्लाम की पुरानी परंपराओं के टूटने का भय जतलाया। लेकिन आलोचनाओं के परे इस शो ने जमकर टीआरपी बटोरी। शो इस्लाम से जुड़ी जानकारियों को इस बखूबी दिखाने लगा कि मलेशिया की एक बड़ी आबादी शुक्रवार की रात टीवी के सामने सिमटने लगी। अमेरिकन आइडल और इंडियन आइडल सरीखे कार्यक्रमों की तरह इस शो से भी हर हफ्ते एक प्रतियोगी बाहर किया जाता रहा। लेकिन यहां फैसले का अधिकार जनता के वोटों के बजाय एक पुराने इमाम, हसन महमूद, पर केंद्रित किया गया जो इन प्रतियोगियों को इस्लाम की कसौटियों पर कसता रहा। शो की शर्त के मुताबिक प्रतियोगियों को एक मस्जिद में सबसे अलग रख दिया गया जहां उनके पास फोन था, इंटरनेट और ही टीवी, अखबार या मनोरंजन का कोई भी साधन ताकि वे अकेले में विचार मंथन कर सकें। इनकी हर हफ्ते इस्लाम को लेकर लिखित और मौखिक परीक्षाएं होती थीं।

प्राइम टाइम में दिखाए जाने वाले इस शो में प्रतियोगी सुंदर सूट पहनकर और एक पारंपरिक टोपी लगाकर आते और जमकर मुस्कुराते। इसलिए इनमें स्टार इमाम भले ही एक ही बना लेकिन बाकी के लिए निकाह के प्रस्तावों की बाढ़ लग गई। स्विस अखबार तागेसेंजर ने तो इन्हें सुपर स्टार ही कह दिया क्योंकि इन पर दुनिया भर की सैंकड़ों लड़कियों की नजरें टिकी थीं।  

आखिरकार 26 साल का असिरफ मोहम्मद रिजवान इसमें विजयी साबित हुआ और उसे ईनाम के तौर पर देश की सबसे प्रमुख मस्जिद में इमाम बनाए जाने के अलावा उसके लिए मक्का की मुफ्त यात्रा का इंतजाम किया गया, सऊदी अरब के एक विश्वविद्यालय में स्कॉलरशिप , 6400 डॉलर नकद, एक कार और एक लेपटॉप भी भेंट में दिया गया। चैनल ने बाद में इस बात पर खुशी जताई कि उनकी इस कोशिश से यह साबित हुआ कि युवाओं का धर्म में अब भी रूझान है और दूसरे यह कि वे एक युवा इमाम को पाने की से रोमांचित थे। मलेशिया की कुल आबादी का करीब 60 प्रतिशत मुसलमान हैं। ऐसे में इस इमाम हंट के नतीजों ने चैनल को काफी प्रोत्साहित किया। [8]

गॉड टीवी की आशातीत सफलता भी धर्म की सफल मार्केटिंग की एक जीवंत मिसाल है। 1995 में इंग्लैंड से शुरू हुआ गॉड टीवी अपनी शुरूआत से ही लोकप्रिय हो गया। इस चैनल की साइट आधुनिकता लिए है। इसमें पूरी तरह धार्मिक कपड़ों की जगह पाश्चात्य कपड़े पहने युवा जोड़ों की मुस्कुराती तस्वीरें हैं। इसमें डोनेशन देने की जगहें सुझाई गई हैं। अगर दर्शक चैनल के जरिए अपने लिए या अपने किसी प्रिय के लिए कोई प्रार्थना करवाना चाहता है तो उसके लिए ऑनलाइन फार्म भरने की सुविधा है। गॉड शॉप नाम के सैक्शन में चैनल की सुझाई हुई धार्मिक किताबों की सूची है। इस चैनल को देख कर लाभांवित हुए दर्शकों के कथन हैं। टेस्टीमनी के कोने में दर्शक वे घटनाएं लिख कर भेज सकते हैं जब उन्हें लगा कि ईश्वर ने उनकी मदद की। और सबसे खास बात यह है कि इस चैनल की अपनी एक कम्यूनिकेशन टीम है। साइट पर मीडिया के लिए एक आसान फार्म डाला गया है जिस पर  चैनल से संबंधित सवाल पूछ सकते हैं। टीम का दावा है कि हर सवाल का जवाब दिया जाएगा। चैनल फेसबुक और ट्विटर दोनों पर है। यानी पूरी तरह से आधुनिकता से लैस। यह चैनल अफ्रीका, एशिया, यूरोप, अमरीका और ब्रिटेन में अपनी पैठ बना चुका है।

इसी तरह अमरीका के शहर न्यूयार्क में शुरू हुआ ब्रिज नेटवर्क पहला ऐसा चैनल है जो अमरीका की मुस्लिम आबादी को जहन में रखकर शुरू किया गया। यहां मध्य पर्व से जुड़े समाचारों से लेकर कुरान पर किस्से-कहानियां, शैक्षिक और मनोरंजक, हर किस्म के कार्यक्रमों को देखा जा सकता है।

 

क्या है राज लोकप्रियता का

आखिर इन चैनलों की कामयाबी का फार्मूला था क्या। ये इतने लोकप्रिय क्यों होते चले गए। सबसे बड़ी वजह है –डर। यह सारा तामझाम इंसानी फितरत की उपज है। सारा मामला डर का है। सच बात तो यह है कि खबर जितना लुभाती, सुझाती, बताती, जतलाती है, ठीक उतना ही कई बार डराती भी है। धर्म का कथित धंधा भी इसी डर की जमीन पर टिका है। यह बाहरी दुनिया में ठोस विश्वास की तलाश, आत्मविश्वास की कमी और डर के व्यापार पर टिका है। इसे गणित साबित नहीं कर सकता। यहां गणित का चुप रहना ही बेहतर है। लेकिन जिसके पास डर है, उत्कंठा है, बेचैनी की लहरें हैं, उसके लिए यह किसी संबल से कम नहीं। यही इसकी नींव है, इसका आधार है।

दूसरी वजह है - सामाजिक परिपाटी। उदारीकरण और वैश्विकरण के इस दौर में कई बार भारतीय समाज के विखंडित होने की बातें उठती हैं। 600 से ज्यादा चैनलों के इस देश में मनोरंजन खूब बिकता है, साथ ही बिकती है खबर भी। क्राइम, क्रिकेट और राजनीति की कॉकटेल के बीच न्यूज चैनलों में फूहड़ हास्य भी अपने पैठ बनाते जा रहे हैं। मनोरंजन के चैनल अपने अति खुलेवाद से कई बार एकल टीवी सेट के परिवारों में संकोच का भाव लाते हैं। बुजुर्गों की उपस्थिति में बिग बॉस और राखी का इंसाफ दिखाते चैनल आंखें और कान बंद करते रहने के लिए मजबूर करते हैं। ऐसे में आध्यात्मिक चैनल सबसे ज्यादा सुरक्षित महसूस होते हैं, फिर इनमें बड़ी चालाकी से सभी उम्र के दर्शकों के लिए सामग्री भी ऐसे करीने से सजा दी जाती है कि इन पर कुछ पल टिकना दुश्वार नहीं लगता।

आसानी ये कि इनके लिए अप्रवासियों का अटूट सतत सहयोग बना रहता है। इस वजह से वीडियो लाइब्रेरी बनाना भी आसान है। फिर, यहां कुछ भी बासी नहीं होता और लोग धर्म और अध्यात्म की कथित दुकान में बिक रहे उत्पाद को भी दिमाग से नहीं, दिल से देखते हैं। इसीलिए सिंगल कैमरे के शूट की सीमाओं, कच्चे शॉट्स की तमाम कमियों, तकनीकी गडमड, टेढे-मेढ़े दृश्य संयोजन वीडियो एडिटिंग, अटपटे संगीत वगैरह को आराम से अनदेखा कर देते हैं। उनके लिए सर्वोपरि होती है – भावना और शुद्धता परखने की फुर्सत और इच्छा यहां किसी को नहीं। देखा जाए तो इस वर्ग विशेष में खर्च अठन्नी और आमदनी रूपया है। फिर यहां बाबा लोग भी आसानी से मिल जाते हैं। नए-नवेले बाबा तो अपना ब्रांड बनाने के चक्कर में खुद यहां चक्कर काटते हैं और चैनल से पैसा लेने की बजाय उन्हें पैसा देते हैं। स्टूडियो का खर्च भी के बराबर ही रहता है। एक छोटे से कमरे को तकनीक से भरा, बाबाओं को बाबा वाले कपड़े पहनाए, ग्राफिक्स सजाए और लीजिए शूट शुरू। ब्रेकिंग न्यूज का कोई झंझट नहीं और ही बार-बार सुपर बदलने का। लाइव फोनो में शहर के बाहर से फोन लिए जा सक रहे हों तो अपने शहर पर टिके रहिए। कोई दिक्कत नहीं।

फिर यहां रिपीट भी खूब होता है। एक ही प्रवचन चारों स्लाटों को उलट-पुलट के दिखा दीजिए या फिर सुबह 8 के प्रवचन को उसी दिन दोबारा 1 बजे भी दिखा दीजिए तो भी दर्शक बिदकेगा नहीं।

 

बाबाओं का बाजार

टीवी पर भागती धर्म की इस रेलमपेल के चलते बाबाओं का एक नया ग्रह बस गया है। ये जनता और सियासत के पुल के साथ ही जनता और सियासत दोनों के लिए ईश्वर के पुल की तरह भी खुद को प्रस्तुत करने लगे हैं। यह ज्ञान के अथाह भंडार, कष्टों के निवारक, उपायों के उपजेता, धर्मों के ज्ञाता और शांति के स्रोत के तौर पर उभरे हैं।

दुनिया के हर देश में टीवी खबर और मनोरंजन का पुट बनाकर चलते हैं लेकिन अब धीरे-धीरे इनके बीच में धर्म भी फिट हो गया है। भारत में सास-बहुओं से लेकर तमाम तरह से पारिवारिक नाटकों की लंबी फौज होने के बावजूद इन चैनलों ने धारावाहिकों के बाजार को पटखनी तो दी ही है। भले ही यह किसी एक धर्म विशेष की नुमांइंदगी करते दिखें लेकिन साथ ही यह एहतियात भी बरती जाती है कि दूसरे धर्मों की गरिमा को ठेस पहुंचे। अयोध्या और गोधरा देख चुके इस देश में धर्म का यह नया स्वरूप शोध का विषय है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सितंबर 11 और इराक को झेल चुकी दुनिया में धर्म के चैनल चैन की बांसुरी बजाने का दावा करते दिखते हैं।

 

 

 

ये बाबा लोग खूब कहानियां सुनाते हैं। इनकी उस भाषा पर पकड़ है जिसे जनता समझे और सराहे। ये  जानते हैं कि टीवी पर कहानी वाचन परंपरा को बनाए रखने से ही अपना झंडा टिका रहेगा। यहां सामाजिक ड्रामे की पृष्ठभूमि तय की जाती है, एजेंडा सेट किया जाता है, रूझान तय होता है और होती है काम चलाने योग्य पूंजी के आगमन की सुखदायक आश्वस्ति। ये बाबा लोग आरामदायक तकिए का काम करते हैं। वे जनता को इत्मीनान और शांति का आभास कराने की कोशिश (काफी हद तक यंत्रवत कोशिश) करते हैं। इसलिए कई बार ये टीवी पर आध्यात्मिक मनोवैज्ञानिक के तौर पर दिखने लगते हैं। [9] ये नए जमाने के धर्म के ब्रांड एंबैसेडर हैं जिनकी अनदेखी की ही नहीं जा सकती। उनके पास हर मर्ज की रेडी टू यूज की रेसिपी है।

लेकिन दूसरी तरफ कुछ बाबा लोग जानबूझकर डराने वाले फार्मूले पर भी काम करते हैं। वे रातों की नींद भी उड़ा सकते हैं लेकिन इसके पीछे मंशा होती है कि दर्शक उनकी शरण में जाए। वे दर्शक के अंदर बेचैनी पैदा करते हैं। वर्तमान से भविष्य की यात्रा को डर से भर देते हैं और यह भाव प्रवाहित करते हैं कि उनके बताए हुए पायों को लागू करे बिना और कोई चारा ही नहीं।  

लेकिन खुद चैनल के आका स्वीकार करते हैं कि कुछेक इसे वाकई जन सेवा की भाव से भी करते हैं। लेकिन अगर उन्हें परे कर दें तो बाबा लोगों की दुनिया किसी रोचक और रहस्यमयी फिल्मी दुनिया से कम नहीं। बाबा लोग अपने ब्रांड को बनाने और संवारने पर खूब समय लगाते हैं। यहां एक-एक कदम फूंक-फूंक कर लिया जाता है। खुद को जल्द से जल्द एक ब्रांड बनाने की बाकायदा रणनीति तय की जाती है।

फिल्मी सितारों की तरह इनका बड़ा सहयोगी स्टाफ होता है। एक्सलूसिव अपायमेंट देने से पहले याचक के कद और उसके जरिए कहीं पहुंचने की संभावनाओं को टटोलने के अलावा उनका बैकग्राउंड और दूसरे खेमे से संवाद की गुंजाइश की भी पड़ताल की जाती है। यहां पूरे 360 डिग्री में जनसंचार के हतियारों का इस्तेमाल किया जाता है। ये बाबा लोग अपनी इमेज के हर अंश पर नजर रखते हैं और यह भी भांपते चलते हैं कि कहीं दूसरे बाबा की कमीज उनसे ज्यादा सफेद और कलफदार तो नहीं दिखने लगी।

ये बाबा लोग नई तकनीक के ज्ञानी हैं। ये फेसबुक ट्विटर लिंकड इन, ईमेल, स्काइप – इनका धड़ल्ले से इस्तेमाल करते हैं। ये पीआर का महत्व भी जानते हैं और अपने संपर्कों की फेहरिस्त की लंबाई को फटाफट बढ़ाते जाने के जादू को समझते हैं। लोकल, नेशनल, इंटरनेशनल – सभी की जरूरतों से  ये वाकिफ हैं। कस्बे का विधाक हो या राज्य का मुख्यमंत्री, देश का प्रधानमंत्री हो या अमरीका का राष्ट्रपति – कोशिश होती है कि उन्हें किसी किसी तरह अपने खेमे की तरफ खींच लिया जाए। पर बात यहीं खत्म नहीं होती। इन्हें खींचते समय इस बात पर भी तवज्जो दी जाती है कि उनकी उपस्थिति की व्यापक कवरेज और चर्चा हो। सिर नवाते वाजपेयी का पुराना शॉट या साष्टांग प्रणाम करती वसुंधरा राजे – इन तस्वीरों को बार-बार किसी दीवार में चिपका दिया जाता है। किसी सेलिब्रेटी के बटे-बेंटी की शादी में आशीर्वाद देते बाबा की तस्वीर भी खूब काम की होती है। इससे मार्केट वैल्यू कई गुणा बढ़ जाती है।

इस मुकाम तक पहुंचने के लिए इन बाबा लोग ने भरपूर तैयारी की है। यह स्टारडम कई पापड़ बेलने  के बाद नसीब हुआ है।

लेकिन बाबा लोगों की निजी जिंदगी की परतें आसानी से खुलती नहीं। ही पता चल पाता है उन्हें मिलने वाले चंदे का वजन। यह जानना असंभव-सा होता है कि बाबा लोगों और उनके स्टाफ और खास चेलों की अनवरत विदेशी यात्राओं के खर्च किस खजाने से चल कर वहां तक आता है।

इनके आश्रमों में राजनीतिक समीकरण भी तय होते हैं। इनका राजनीतिक दायरा कई बार इस कदर गहरा हो जाता है कि ये बड़ी-बड़ी कुर्सियों की उठक-पठक में मौन ही मौन में बड़े खेल रच जाते हैं। इशारों में बातें हो जाती हैं और ये बातें राडिया से भी जरा आगे की बातें होती हैं पर लीक नहीं होतीं। बड़ी वजह इसका एक सुरक्षित क्षेत्र में होना ही है।

यह एक दूसरे किस्म बॉलीवुड है। यहां बाबानुमा स्टारों की मंडी लगी है। सब का रेट कार्ड बना हुआ है। यह रेट कार्ड पब्लिक नहीं होता लेकिन पब्लिक इसे लेकर कयास लगाने के लिए आजाद है। यह जीवंत स्टार हैं। कई मामलों में बालीवुडी सितारों से भी आगे क्योंकि वे भी तो इनके दरबार में हाजिरी लगाने आते हैं लेकिन ये वहां नहीं जाते। इनका स्टारडम रहस्य और हैरानी का विषय बना रहता है लेकिन इन पर ज्यादा छींटे नहीं पड़ते, इनके प्रेम-प्रसंगों के किस्से छपते नहीं क्योंकि यहां का मामला काफी नाजुक है।

तो शुरूआती दिनों में कई बाबा लोग चैनलों के चक्कर काटा करते थे। टीवी पर नयनाभिराम दिखने के लिए ट्रेनिंग लिया करते थे। अपने ज्योतिषी ज्ञान को मांझा करते थे। वैसे तो ज्यादातर चैनलों में नए गुरूओं के ज्ञान को मापने का कोई थर्मामीटर होता नहीं लेकिन कुछ चैनल अपवाद जरूर हैं। जैसे कि आज तक के न्यूज डायरेक्टर और भारतीय टीवी के वरिष्ठतम टीवी कर्मियों में से एक क़मर वहीद नक़वी खुद ज्योतिष के एक बड़े जानकार हैं और गोल्ड मेडलिस्ट हैं। वे बाबाओं को टीवी पर लाने से पहले खुद उनका टेस्ट ले लेते हैं। उन्हें तमाम कसौटियों पर कसा जाता है और खरे उतरने पर ही उन्हें ऑन एयर जाने का सौभाग्य मिलता है। लेकिन यह महारत शायद किसी भी और खबरिया चैनल के टॉप अधिकारी के पास नहीं है। कई जगहों पर बाबाओं का चोगा, उनका स्टाइल और वाक्पटुता ही बड़ी भूमिका निभाती है। बाबाओं को चुने जाने के बाद उनके कपड़ों पर खास काम किया जाता है। मोटी माला, अंगूठियां, रत्न धारण किए, दिव्य से लगते आकर्षक गेट-अप वाले पंडितों को शायद जनता भी पसंद करती है। इसलिए उन्हें हर लिहाज से दर्शक-फेंडली बनाया जाता है।

लेकिन मजे की बात यह है कि जो चैनल ब्रांड बनाता है, वही कई बार पोल-खोल भी कर देता है। आज तक अपने क्रीएट किए हुए शनिधाम दाती महाराज के खिलाफ सुबूत मिलने पर उन्हीं के खिलाफ  स्ट्रिंग भी कर देता है। आसाराम बापू के आश्रम में हुई संदिग्ध मौत को भी चैनल दिखाते हैं और समय-समय पर कई आश्रमों में होने वाले सेक्स स्कैंडल भी।

बाबाओं की कई परतें हो सकती हैं। एक परत में बाबा रामदेव, आसाराम बापू, श्री श्री रविशंकर, पंडित रवि प्रकाश, माता अमृतानंदमयी हो सकते हैं तो दूसरी तरफ दीपक चोपड़ा, शिव खेड़ा, अनिल कुमार, विकास मलकानी हो सकते हैं जो अंग्रेजी में मोटिवेशनल स्पीच देते हैं और अक्सर अपने नाम के साथ गुरू शब्द का जोड़ा जाना पसंद करते हैं, तीसरे में अध्यापक श्रेणी के वक्ता हैं। जैसे कि आज तक में ऐसे कार्यक्रम करने वाले पंडित एस गणेश और दीपक कपूर सालों से दिल्ली के भारतीय विद्या भवन में पढ़ा रहे हैं। पवन सिंहा दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हैं जबकि सुरेश कौशल सरकारी नौकरी से वीआरएस लेने के बाद इस काम में जुटे हैं। ऐसे लोगों के बायोडेटा पहले से ही मजबूत होते हैं। उनकी बताई भविष्यवाणी सही होती है या नहीं, यह दूसरी बात है लेकिन यह जरूर है कि उनकी गंभीरता पर कोई सवाल नहीं खड़े कर सकता।

 

बरेली के बाजार में धर्म का झुमका

बहुत से बाबाओं का संसार उजलेपन पर विश्वास को पुख्ता करता है। कई सकारात्मक बाबाओं के इस राशि मिलन से समाज की किस्मत की लकीरों पर पड़ने वाला असर साफ दिखाई देता है। फीका पड़ता योग का बाजार जैसे फिर से जी उठा है। कपाल भाति, सूर्य नमस्कार, कुंजल एसएमएस युगीन दुनिया की रोजमर्रा की भाषा का हिस्सा बन गए हैं। यह शब्दकोष में फिर से झाड़-पोंछ के बाद मजबूती से उभरे हुए अक्षर हैं। पिज्जा संस्कृति के लिए चुनौती बनकर खड़े हुए हैं। बूढ़े सुबह पार्कों में ठहठहा लगाते हैं। युवा मैदे से परहेज करते हैं। शांति की तलाश में वे बाबा लोगों से मिलने को आतुर रहते हैं और दफ्तर से समय मिलते ही लैपटॉप के आगे बैठकर ध्यान लगा लेते हैं। सेहत को लेकर जागरूकता की जबरस्त लहर चल पड़ी है। सेहत को विज्ञान और मनोविज्ञान से जोड़कर देखा जाने लगा है। पश्चिम से एक बयार भी भारत की तरफ उठ आई है। आश्रमों में गोरी चमड़ी वाले कतारों में दिखने लगे हैं – जेब में विदेशी मुद्रा भर कर भजनों पर झूमते हुए। इन मुद्राओं ने आश्रमों और बबाओं – दोनों के ही दिन फेर दिए हैं।

इसका एक मजेदार असर यह भी पड़ा कि जिन भारतीयों को पश्चिम नयनाभिराम लगने लगा था, वे भी हवा को उलटी दिशा में बहते देख अपने गिरेबां में झांक इस दिव्य ज्योति को नमन करने लगे। उन्हें भी ख्याल हो आया है कि भारत सफेद कबूतरों का देश रहा है। धर्म के इस भव्य, मोबाइल और स्मार्ट होते बाजार ने कई बार ऐसे शानदार नुस्खे दिए हैं जिसने व्यकितगत लाभ भले ही दिए हों लेकिन मानव-पशु जाति का कुछ उद्धार जरूर किया है, साथ ही पर्यावरण का भी। गाय,काले कुत्ते या चिड़िया को रोटी खिलाना, किसी जरूरतमंद का पेट भरना, तुलसी के पौधे या पीपल के पेड़ को पानी देना – यह सब यह सब उन पुरानी मान्यताओं की तरफ लोगों को मोड़ते हैं जो ग्लोबल दुनिया जाने कब की भूल गई होती।              

लेकिन यहां कई पेच भी हैं। पहला पेच तो धन का ही है। बहुत से गुरूओं के मामले में यह जानना कुएं में छलांग लगाकर बालटी में पानी लाने जैसा ही है कि यहां आने वाली दान की राशि किन स्रोतों से, कब और किन-किन कारणों से आती है। फिर उनका खर्च कैसे और कहां होता है और तीसरे उन पर कोई टैक्स, अगर बनता है, तो क्या वह अदा किया जाता है या नहीं। टीवी पर राशिफल बताने वाले कई गुरू चैनल को पैसा देते हैं और इसके बदले में उनका फोन नंबर टीवी पर बार-बार बताया जाता है। ये गुरू अपना ज्ञान देने से पहले याचक को अपनी फीस बताते हैं और फिर पैसा सीधे अपने अकाउंट में मंगवाते हैं। उसके बाद कहानी आगे बढ़ती है। लेकिन इस तमाम फीस के बाद किसी काम के होने की कोई गारंटी नहीं और ही काम होने पर फीस के वापिस मिलने के कोई आसार।

लेकिन एक मामला इन सबसे बड़ा है। वह है आरोपों का। आश्रमों के सेक्स के अखाड़े बनने से लेकर हत्याओं, जोर-जबरदस्ती, अपहरण और भ्रष्टाचार के तमाम आरोप लगते रहे हैं। चाहे आसाराम बापू के आश्रम में चार लोगों की रहस्यमयी मौत का मामला हो या फिर बाबा रामदव पर गुरू शंकर देव की हत्या पर शक या स्वामी नित्यानंद का सेक्स स्केंडल, – ये सारे मामले उजले कपड़ों पर छींटे डालते हैं। न्यूज चैनल भी इन पर सीधे हाथ डालने में थोड़ा डरते हैं, ठीक उसी तरह जैसे बाबा लोगों का संवाद भी नाप-तौल के कई पैमानों से होकर गुजरता है। इन बाबा लोगों ने शुरूआती दिनों में कोक और पेप्सी पर भी ताने कसे लेकिन वे जान गए कि कारपोरेट जगत को नाराज करने में ही भलाई है।

इन सबके बीच नैतकिता के दायरे से कई सवाल उभर कर आते हैं। यह बात जरूर सोचने की है कि क्या जरूरत से ज्यादा परोसे जाने वाला यह डर, विश्वास या अंधविश्वास न्यूज चैनलों के कर्तव्यों की परिधि में आता है। बाबा लोगों के पास धार्मिक चैनलों का प्लैटफार्म है ही और वे ब्रांड एंबैसेडर के तौर पर वहां अपना तंबू तान कर दिन भर बैठते भी हैं। ऐसे में न्यूज चैनलों को क्या अपनी खुद की गढ़ी इस मजबूरी से बाहर आने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। कभी राजू का मसखरापन तो कभी राखी की नौटंकी दिखाते इन चैनलों को क्या अब न्यूजवाला बने रहने का पाठ दोबारा याद करने की जरूरत तो नहीं। क्या अब यह सोचने का वक्त नहीं है कि उन्हें अब वही करना चाहिए जिसके लिए भारत सरकार ने उन्हें लाइसेंस दे रखा है।

दुनिया में ज्यादातर लड़ाइयां विवाद धर्म और धन की वजह से ही हुए हैं। सितंबर 11 की तस्वीरों का भी असर अब भी पूरी दुनिया पर है। लोग इराक को भूले नहीं है। ऐसे माहौल में धर्म और आध्यात्म के बाजार ने अभी अपने पंख खोलने शुरू ही किए हैं। इसके लिए बाजार भी है, पैसा भी, अवसर भी, प्रोत्साहन भी। लेकिन नीयत में नेकनियती का भाव कितना है, इसे तौला नहीं जा सकता। धर्म का पैकेज आकर्षक लिफाफों में लिपट कर सामने है। बाजार चलाने वाले बखूबी जानते हैं कि तमाम चैनलों का मजाक उड़ाता रिमोट जब अध्यात्म पर पहुंचता है तो विश्लेषण का बटन बंद हो जाता है। आस्था के इसी फार्मूले पर यह चैनल टिके हैं और लंबे समय तक टिके रहेंगें लेकिन यहां सवालों की नई फसलें भी पैदा होती जा रही हैं। यह सवाल तीखे हैं। जनता को पूछने में हिचक है जबकि पूछने की ताकत रखने वाला मीडिया खुद ही राडियानामे के चलते मुंह लटकाए खड़ा है।


(यह लेख कथादेश की मीडिया वार्षिकी में अप्रैल 2011 को प्रकाशित हुआ है)


संदर्भ

[1] बुद्धू बक्से के जादू का आगाज़
20 Jul 2008, 0000 hrs IST,
नवभारत टाइम्स, प्रस्तुति- आलोक सिंह भदौरिया

[2] नवभारत भदौरिया

[3] http://www.televisionpoint.com/news2007/newsfullstory.php?id=1177604273

[4] live http://www.aasthatv.co.in/index.html

[5] http://www.sanskartv.co.in/index.html

[6] http://www.televisionpoint.c>om/news2007/newsfullstory.php?id=1177604273

[7] (खबरों के माध्यम पर लगा सूर्यग्रहण, वर्तिका नन्दा,दैनिक हिंदुस्तान,9 जनवरी, 2011 )

[8] http://english.aljazeera.net/news/asia-pacific/2010/07/2010731503766963.html

[9] http://www.lifepositive.com/Mind/personal-growth/Spiritual_TV.asp

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Dr Vartika Nanda
Head, Department of Journalism
Lady Shri Ram College
New Delhi