Featured book on Jail

Jail Radio: Ambala

Feb 14, 2011

महिलाओं ने जीती खबर पढ़ने की जंग

70 के दशक में ब्रितानी टेलीविजन में महिला एंकर एंजिला रिपन और अन्ना फोर्ड नियमित तौर पर समाचार पढ़ने लगीं तो यह आम लोगों के साथ-साथ प्रेस के लिए भी बड़ा अजूबा बना। समाज में एक नई भूमिका के साथ मैदान में उतरी ये महिलाएं चुटकुलों, तस्वीरों और दिअर्थी टिप्पणियों का शिकार बनीं। उनकी लिपस्टिक और टेबल के पीछे छिपी टांगें छींटाकशी पाती रहीं। यहां तक कहा गया कि टीवी के स्क्रीन पर खबर पढ़ी महिला को देखकर पुरूषों की आंखें फिसलती हैं। ऐसे में खबर पर ध्यान को टिकाना सहज नहीं हो पाता और खबर भी सिर्फ खबर भर नहीं रह पाती। लेकिन इस कटाक्ष के बावजूद महिलाएं खटाखट खबर पढ़ती गईं और धीरे-धीरे ग्लोबल परिप्रेक्ष्य में भी स्वीकार्य होती चली गईं।

इस जिद्दीपने और प्रोयोगिक माहौल का एक सीधा असर यह भी हुआ कि धीरे-धीरे लोगों का मीडिया को पढ़ने और समझने का नजरिया खुलने लगा। समाज की मीडिया और उससे जुड़े संकेतों के प्रति विचारधारा परिपक्व होने लगी। टेलीविजन मीडिया ने प्रिंट के उस अलिखित नियम को पलट जैसे पलट ही दिया जिसमें महिलाओं को सिर्फ फीचर योग्य ही माना जाता था। इन महिला एंकरों की बदौलत मीडिया की दुनिया को जेंडर सेंसिटिव बनाने की जमीन तैयार होने शुरू हो गई।

दरअसल टेलीविजन मीडिया में आने वाले बदलाव ज्यादा तत्पर होते हैं। यहां नए मुहावरे और नए खिलाड़ी रोज आ जुड़ते हैं। लेकिन मीडिया स्टडीज में सबसे बड़ी चुनौती यही है कि तमाम माध्यमों के बीच कॉमन यानी एकसमान है क्या। अलग-अलग देशों की सत्ताओं और रूचियों के आस-पास घूमता मीडिया बाहरी प्रभावों से कतई अछूत नहीं है, ऐसे में राष्ट्रीय प्रणाली से लेकर सांस्कृतिक कलेवर तक मीडिया के पड़ने वाले असर की गहन समीक्षा अनिवार्य हो जाती है। यही वजह है कि पिछले एक दशक में मीडिया से निकलने वाली धव्नियों और संकेतों पर गहन शोध की जरूरत महसूस की जाने लगी है।

नए भारत में भी न्यूज एंकरिंग की स्पेस पर महिलाओं का वर्चस्व कायम हो चुका है। खबर की प्रस्तोता से लेकर खबर को जोड़कर लाने वाली भी महिला ही है। अब अगर यह पूछा जाए कि तमाम न्यूज चैनलों में एक कामन बात क्या है तो उसमें ब्रेकिंग न्यूज की हड़बड़ी के अलावा यह बात जरूर आएगी कि इन्हें पढ़ने वालों में महिलाएं ही ज्यादा हैं।

लेकिन इन कुछ सालों ने महिला एंकरों के चेहरे से लेकर पहनावे और चेहरे के भावों को भी काफी हद तक बदल कर रख दिया है। दूरदर्शन की पाषाणयुगीन भावनाशून्य चेहरा लिए एंकर 90 का दशक पार करते-करते एकदम मुखर हो उठी। वो जैसे अतिरेक उत्साह से भर उठी। कलफदार साड़ी पहनकर एक भारतीय नारी की जो छवि दूरदर्शन ने गढ़ी थी, वो उससे भी चाबुक की गति से बाहर निकल आई। अब जो छवि बनी, वो चुस्ती, फुर्ती और मस्ती की थी। सबसे पहले तो साड़ी दरकिनार कर दी गई। कुछेक चुनिंदा एंकरों को छोड़ दें तो निजी चैनलों में साड़ी अब बीते समय की बात हो गई लगती है।

एक बदलाव आत्मविश्वास को लेकर आया है। ये महिलाएं भरपूर आत्मविश्वास के साथ सामने आती हैं। स्क्रीन पर ये पूरे नियंत्रण में दिखती हैं और एक सधे हुए वातावरण का निर्माण करती चलती हैं। यह सिर्फ सुबह की रौशनी और रात के ढलने तक ही नहीं दिखतीं। यह पूरे चौबीसों घंटे दिखती हैं। इससे एक सीधा संदेश यह भी जाता है कि महिलाओं के इस युग से डर की कंपकपी अब घटी है। बरसों पहले जिन महिलाओं को नाजुक-नरम करार करते हुए उन्हें सीमित अवधियों में बांट कर उन पर जो कटाक्ष किए जाते थे, वे अब सिमटे हैं क्योंकि महिलाओं चौबीसों घंटे मुस्तैद हैं।

लेकिन कुछ बातें अब भी समझ में नहीं आतीं। क्यों निजी चैनलों की न्यूज एंकर अब भी अक्सर मोटे डिस्टैंपर के नीचे दबी दिखती हैं, क्यों यह मान लिया गया है कि दर्शक उन्हें पश्चिमी परिधान में देख कर ही खुशी महसूस करेगा और क्यों न्यूज एंकरिंग को काफी हद तक युवतियों तक ही सीमित कर के रख दिया गया है। बीबीसी और सीएनएन से सबक लेने में शायद हमें अभी कई साल लगेंगे। एक बात और। टीवी की महिला एंकर को अब भी सजा-धजा दिखाया जाना अगर मजबूरी है तो वैसी गहन मजबूरी पुरूष एंकर के साथ क्यों नहीं। महिला एंकर को चश्मा पहने दिखाना भी अब तक ज्यादा पाचन योग्य हो नहीं सका है।

ऐसे कई सवाल हैं जिनके जवाब मीडिया के इस नए मौसम को बेहतर तरीके से समझने में मदद कर सकते हैं।

(यह लेख 13 फरवरी, 2011 को दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित हुआ)


No comments: