Jan 30, 2011

तल-वार बड़ा या फारसा

रिपोर्टर चांदनी चौक में है और एक दुकानदार के साथ बैठा है। वहां से बताया जा रहा है कि जिस फरसे से राजेश तलवार पर हमला किया गया, वो चांदनी चौक से खरीदा गया था। उसकी कीमत 250 रूपए है। अब पूछा जाता है कि इस फरसे को खरीदा क्यों जाता है। दुकानदार हंसाने वाला जवाब देता है कि इससे सब्जियां काटी जाती हैं, वैसे मांस भी काटा जा सकता है। अगला सवाल है कि क्या ऐसे फरसों का इस्तेमाल हमले करने के लिए भी हो सकता है। अबकी बार जवाब है कि कोई भी किसी भी चीज का इस्तेमाल कैसे भी कर सकता है। यह सब तो इस्तेमाल करने वाले पर निर्भर करता है।

 

तो राजेश तलवार पर हमले की लाइव तस्वीरें शाम तक चलाने के बाद चैनल साइड स्टोरीज की तरफ जब मुड़ते हैं तो फारसेनुमा कहानियां आने लगती हैं। तलवार पर तीन बार चला फारसा शाम होने तक खबर का केंद्र-सा बनने लगता है, उसका क्लोज अप उसकी विद्रूप धार को दिखा कर डराता है।

 

ढाई साल से चल रहे आरूषि कांड में यह एक नया मोड़ है। आरूषि की हत्या के बाद परिवार से सहानुभूति, बाद में पिता का नाम उछलने और उन्हें गिरफ्तार किए जाने पर रिश्तों के छिलने, फिर उन्हें रिहा करे जाने पर अपराध बोध और सीबीआई का यह कहकर केस बंद कर देने की अपील कि शक तो पिता पर ही लेकिन पर्याप्त सुबूत नहीं, एक बार फिर रिशेतों के प्रति कड़वे घूंट का अहसास कराते हैं। इन सबके बीच उत्सव का फरसे से हमला करना एक बार फिर तलवार दंपत्ति को सहानुभूति के करीब ले आता है। लोग फारसे को देखते हैं, सहमते तलवार को देखते हैं, पिटते उत्सव को देखते हैं और एक लंबी सांस भरते हैं। अपराध कवरेज का यही मर्म है जो टीवी पर अपराध को बिकाऊ, टिकाऊ और सुखाऊ बनाता है।

 

उत्सव नेशनल स्कूल आफ डिजाइन का गोल्ड मेडलिस्ट है। पकड़े जाने पर उसने सभी सवालों के जवाब करीने से दिए। राठौर पर हमला करने का बाद भी ऐसा ही हुआ था। तो क्या वो वाकई पागल है।

 

बेशक अब इस मामले पर दिमागी रस्साकशी होगी लेकिन साथ ही यह घटना यह सोचने के लिए भी कुरचने लगती है कि क्या मीडिया की जरूरत से ज्यादा रिपोर्टिंग, न्याय की बेहद ढिलाई और डर पर पनपता खबर का व्यवसाय सामाजिक सेहत को कमजोर कर रही है। उत्सव पिछले कई दिनों से लगातार न्यूज चैनल देख रहा था। राठौर मामले में भी उसकी गहरी दिलचस्पी रही और बतौर उसकी मां के, वह किसी लड़की पर अत्याचार नहीं देख सकता। एक ऐसा समाज जहां महिला पर अत्याचार फैशन और रोज के खाने जैसा जरूरी कर्म है, वहां उत्सव का यह बयान चौंकाता है।

 

दरअसल न्यूज मीडिया पहले खबर की तलाश में जुटा रहता है और फिर बड़ी खबर के आने पर और अगली खबर के आने तक मजबूरीवश उसके साथ ऐसा चिपका रहता है कि वह मानस पर हावी ही होने लगता है। जाने कितने उत्सवों ने इस उत्सव का कारनामा देख कर कोई प्रेरणा ली होगी। याद कीजिए बुश, आसिफ अली जरदारी, वेन जियाबाओ, अरूणधति राय और बाद में पी चिदंबरम पर चले जूते। एक जूते ने दुनिया भर में कई लोगों को जूता चलाने का मंत्र सा दे दिया था। बाद में तो हालत यह हो गई कि कई प्रेस कांफ्रेसों में पत्रकारों से अपने जूते बाहर उतारने के लिए कहा जाने लगा। लेकिन जूतों का फेंका जाना पूरी तरह से रूका नहीं और वो डर आज भी बदस्तूर कायम है।

 

दरअसल जूते हो या फारसे, तस्वीरों के बार-बार के दोहराव से एक मानसिक जमीन को तैयार करते हैं। मीडिया अगर डर के पोषण या डर की तलाश का काम करता है तो जनता भी मीडिया के जरिए अपनी दबी हुई भावनाओं की सहज अभिव्यक्ति की उम्मीदें पालती है। हताश होता युवा इसका सबसे बड़ा शिकार बनता है क्योंकि उसके पास युवा होने के आई कार्ड के सिवा कुछ नहीं। टीवी पर लगातार दिखने वाली काली तस्वीरें उसे यह मानने के लिए मजबूर करती चलती हैं कि पूरी दुनिया में हर तरफ, हर समय सिर्फ गोरखधंधा ही होता है। यहां शांत करने वाली, सुकून देती, सकारात्मक तस्वीरों की कमी हमेशा रहती है। डर, विद्रोह, विक्षोभ की तस्वीरों का यह पिटारा कभी तो हड़बड़ाते हुए फैसले सुनाए बिना जरा सब्र करे।    

 


Jan 19, 2011

गोवा के बीच पर राष्ट्रपति

गोवा के एक बीच पर इत्मीनान से कुछ सुस्ताती सी राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल का फोटो जिस रोज अखबार में छपता है, बहुत से पाठक उसे देख कर मुस्कुराते हैं। यह एक मानवीय तस्वीर है। देश की महामहिम का एक सामान्य इंसान की तरह छुट्टी मनाता यह चेहरा जनता को बड़ा भला लगता है।

लेकिन भलमानसहत से ली गई यह तस्वीर उनकी किलेबंदी में लगे सुरक्षा अधिकारियों को भली नहीं लगती। लिहाजा गोवा पुलिस को बीच में डाला जाता है और वह उन तीनों फोटो पत्रकारों को तलब करती है जिन्होंने यह गुस्ताखी की है। गगनदीप श्लेडेकर, अरविंद टेंग्से और सोरू कोमारपांत- इन तीनों पत्रकारों के बयान रिकार्ड किए जाते हैं और पूछा जाता है कि इतनी कड़ी सुरक्षा को देखने के बावजूद उन्होंने महामहिम की तस्वीर खींचने की गलती क्यों की। अलग-अलग पूछताछ के दौरान ये तीनों पत्रकार बताते हैं कि सुरक्षा अधिकारियों के निर्देश के मुताबिक ये तस्वीरें 200 मीटर की दूरी से ली गईं थीं और इन्हें 400 एमएम के जूम लैंस से खींचा गया था। यहां इन्होंने एक रोचक बात यह भी जोड़ी कि इतनी कड़ी सुरक्षा के बावजूद राष्ट्रपति के पास बिकनी पहने दो अनजाने विदेशियों को बैठने की अनुमति पता नहीं कैसे और क्यों दे दी गई। जिन फोटो पत्रकारों की वजह से सुरक्षा तंत्र की यह चूक उजागर हुई है, उसकी जांच की बजाय उन पत्रकारों से पूछताछ की जा रही है जिन्होंने कोई अपराध नहीं किया है। उन्होंने मर्यादा में रहकर अपना काम किया है। खैर, गोवा पत्रकार संघ के अध्यक्ष प्रकाश कामत पुलिस के इस दखल को मीडिया की आजादी पर प्रहार बताते हैं और भाजपा के प्रवक्ता रजेंद्र अरलेकर भी इसे अलोकतांत्रिक ठहराते हैं। वैसे एक सवाल यह भी उठता है कि इस देश की पुलिस कब तक ऐसी बड़ी जिम्मेदारियों को निभाने में व्यस्त रहेगी।

बेशक इस मामले पर कोई केस दर्ज नहीं होता और न ही कोई केस बनता भी है, लेकिन इसके जरिए यह जतला देने की कोशिश जरूर कर दी जाती है कि ऐसा किया जाना ठीक नहीं। पत्रकारों को यूं इस तरह अपनी सीमा का उल्लंघन कतई नहीं करना चाहिए और बात-बेबात अपने पत्रकारीय गुण दिखाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए।

यहां कई बातें जहन में आती हैं। सबसे जरूरी तो यह कि सत्ताओं में सहनशीलता इतनी कम क्यों होती है। वे खुद पर हल्की सी हसीं, थोड़ा कटाक्ष, थोड़ी नजरअंदाजी या ऐसे मामलों में थोड़ा सा नटखटपन क्यों बर्दाश्त नहीं कर पाते। दूसरे ये भी कि सत्ता खुद अपने लिए जो मापदंड खड़े करती है, वह उन आम लोगों के लिए भी क्यों लागू नहीं होने देती जिनकी बदौलत उन्हें प्रत्यक्ष या फिर अप्रत्यक्ष तौर से सत्तारूढ़ होने का तोहफा नसीब होता है। अगर बड़े नेताओं के लिए एक छोटी सी निजता एक बड़ा मसला है तो आम आदमी की बड़ी निजता इतनी छोटी कैसे आंक दी जाती है।

राष्ट्रपति ने शायद अपने सुरक्षा अधिकारियों से ऐसा करने के लिए कहा भी न हो। हो सकता है कि ये अधिकारी किसी बड़े राष्ट्रीय खतरे की आशंका से खुद ही सक्रिय हो उठे हों लेकिन इसके बावजूद सच यही है कि सारा कारनामा तो राष्ट्रपति के नाम पर ही किया गया। राष्ट्रपति को तो शायद इस बात का इल्म तक नहीं होगा कि इस एक घटना ने उनकी छवि पर एक हलका छींटा डाला है क्योंकि वे आम तौर पर एक मानवीय राष्ट्राध्यक्ष के तौर पर ही देखी जाती रही हैं और उन्हें गोवा के बीच में शांत मुद्रा में बैठे देखकर जनता में भी कहीं न कहीं एक सुख का भाव ही उमड़ा था। जनता उन्हें मान देती है और एक स्त्री के पहली बार राष्टप्रपति बनने पर उसके जीवन के हलके-फुलके क्षणों को देखने के लिए भी थोड़ी सी बेताब रहती है। लेकिन जैसा कि आम तौर पर होता ही है, सत्ताओं के आस-पास के घेरे ही घटनाओं के घूमने का चक्र तय करने लगते हैं। जहां थोड़ा सा सरकारी दांव-पेंच चला, बस वहीं सारा स्वाद भी किरकिरा हो गया।

तो राष्ट्र्पति की अगली निजी यात्रा की कवरेज के लिए अब कोई नियमावली तय करने का समय आ गया है क्या?

Jan 12, 2011

खबरों के माध्यम पर लगा सूर्यग्रहण

4 जनवरी को तकरीबन सारा दिन कई न्यूज चैनल यही बताते-समझाते रहे कि आंशिक सूर्य ग्रहण पर क्या करें, क्या न करें। कब कौन सा मंत्र पढ़ें, क्या खाएं, क्या न खाएं, आज क्या पहनें, ग्रहण के दौरान और बाद में क्या-क्या उपाय करें। दिशाओं का बोध दिया गया और धर्म कर्म के हिसाब से लंबी विवेचनाएं की गईं।

ये कहानियां ऐसी रोचक-सरस और क्रमवार कर दी गईं, ग्रहण के दौरान स्नान के इतनी बार विजुअल दिखाए गए और कथित आस्थाओं के ऐसे कलश सजा दिए गए कि सचिन का अपने करियर का 51वां टेस्ट शतक पूरा करना भी टीवी चैनलों की इस बाबानुमा आपाधापी को रोक नहीं पाया। सचिन पर ब्रेकिंग न्यूज आई, फोनो, वीओ हुए और फिर ग्रहण की डुबकी लगने लगी। सचिन चैनलों पर ग्रहण के खत्म होने और बाबाओं की अपनी दुकान के समेटने के बाद ही चैनलों पर पूरी तरह से हावी हो सके।

इससे ठीक पहले नए साल की शुरूआत पर जब देश-दुनिया में गाजे-बाजे बज रहे थे और तमाम चैनल ठुमकने में लगे थे, तब भी न्यूज परोसने वाले चैनल मुफ्त में यह ज्ञान देने से खुद को रोक नहीं पा रहे थे कि इस साल के पहले दिन क्या करना शुभ या अशुभ होगा। किस राशि के लिए यह साल खुशियां बरसाएगा, किसके लिए मातम आने की आशंका है। फिर उपायों की झड़ी भी लगी कि क्या करने या न करने से दुष्प्रभावों से बचा जा सकता है। कौन से रत्न कैसा कायापलट कर सकते हैं और किन रंगों से जिंदगी की कहानी ही बदल सकती है।

यह एक अजीब कहानी है। जिन चैनलों को खबर देने के लिए 24 घंटे का बने रहने की अनुमति दी गई थी, वे कई बार विशुद्ध खबर कम और कर्मकांड ज्यादा बताते हैं। इस काम में वे जितनी ताकत लगाते हैं, उसे देख कर कई बार आह निकलती है कि काश इतनी ताकत चैनल अपने कंटेट को परिष्कृत करने में लगा देते या फिर इतना पैसा उन पत्रकारों के कल्याण में लगा देते जो चैनल के स्वभाव के अनुरूप खबर की तलाश में दिनभर खाक छानते फिरते हैं।

यहां एक बात बहुत खास है। यह सारा तामझाम इंसानी फितरत की उपज है। सारा मामला डर का है। सच बात तो यह है कि खबर जितना लुभाती, सुझाती, बताती, जतलाती है, ठीक उतना ही कई बार डराती भी है। धर्म का कथित धंधा भी इसी डर की जमीन पर टिका है। यह  बाहरी ठोस विश्वास की तलाश, आत्मविश्वास की कमी और डर के व्यापार पर टिका है। इसे गणित साबित नहीं कर सकता। यहां गणित का चुप रहना ही बेहतर है। लेकिन जिसके पास डर है, उसके लिए यह किसी संबल से कम नहीं। यही इसकी नींव है, इसका आधार है।

लेकिन एक बात भूलनी नहीं चाहिए। धर्म के इस भव्य, मोबाइल और स्मार्ट होते बाजार ने कई बार ऐसे शानदार नुस्खे दिए हैं जिसने व्यकितगत लाभ भले ही न दिए हों लेकिन मानव-पशु जाति का कुछ उद्धार जरूर किया है, साथ ही पर्यावरण का भी। गाय,काले कुत्ते या चिड़िया को रोटी खिलाना, किसी जरूरतमंद का पेट भरना, तुलसी के पौधे या पीपल के पेड़ को पानी देना यह सब यह सब उन पुरानी मान्यताओं की तरफ लोगों को मोड़ते हैं जो ग्लोबल दुनिया जाने कब की भूल गई होती।

इसमें एक बात और मजे की है। इन्हें देखने वाले लोग खुलकर कहते नहीं कि वे इन्हें देखते हैं या बाबाओं के फार्मूलों का अनुसरण करते हैं। वे इस बात को छिपा कर रखते हैं। यहां जैसे स्टेटस आड़े आ जाता है। जैसे लगता है कि यह आधुनिक बनती छवि को खा न ले। यही वे लोग जो न्यूज चैनलों की टीआरपी को उस वक्त बढ़ा देते हैं जब बाबाओं के प्रवचन चरम पर होते हैं।

पर इन सबके बीच यह बात जरूर सोचने की है कि क्या जरूरत से ज्यादा परोसे जाने वाला यह डर, विश्वास या अंधविश्वास न्यूज चैनलों के कर्तव्यों की परिधि में आता है। बाबा लोगों के पास धार्मिक चैनलों का प्लैटफार्म है ही और वे ब्रांड एंबैसेडर के तौर पर वहां अपना तंबू तान कर दिन भर बैठते भी हैं। ऐसे में न्यूज चैनलों को क्या अपनी खुद की गढ़ी इस मजबूरी से बाहर आने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। कभी राजू का मसखरापन तो कभी राखी की नौटंकी दिखाते इन चैनलों को क्या अब न्यूजवाला बने रहने का पाठ दोबारा याद करने की जरूरत तो नहीं। क्या अब यह सोचने का वक्त नहीं है कि उन्हें अब वही करना चाहिए जिसके लिए भारत सरकार ने उन्हें लाइसेंस दे रखा है।

(यह लेख 9 जनवरी, 2011 को दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित हुआ)

Jan 6, 2011

सबसे ताकतवर होता है........

मेरे सपने अपनी जमीन ढूंढ ही लेते हैं

बारिश की नमी

सूखे की तपी

रेतीले मन

और बाहरी थपेड़ों के बावजूद

 

खाली पेट होने पर भी

सपने मेरा साया नहीं छोड़ते

चांद के बादलों से लिपट जाने

सूरज के माथे पर बल आने

अपनों के गुस्साने

आवाज के भर्राने पर भी

ये सपने अपना पता-ठिकाना नहीं बदलते

 

सपनों की पंखुड़ी

किसी के भारी बूटों से कुचलती नहीं

हंटर से छिलती नहीं

बेरूखी से मिटती नहीं

 

सपनों का ओज

उदासी में घुलता नहीं

टूट कर बिखरता नहीं

अतीत की रौशनियों की याद में

पीला पड़ता नहीं

 

क्योंकि वे सपने ही क्या

गर वो छिटक जाएं

मौसमों के उड़नखटोलों से

क्या हो सकता है

इतना निजी, इतना मधुर, इतना प्यारा

सपनों की ओढ़नी

सपनों की बिछावन

सपनों की पाजेब

सपनों का घूंघट

सपनों की गगरी

 

काश!, कि तुम होते आज पास पाश

तो एक सुर में कहते

सबसे खतरनाक होता है

सपनों का मर जाना

और मैं कहती

सबसे ताकतवर होता है

सपनों का खिल-मिल जाना

हिम्मती हो जाना

फौलादी बन जाना

कवच हो जाना

हथेलियों की लकीरों को

आलिंगन में भर लेना कुछ इस तरह कि

सपने बस अपने ही हो जाएं

कि सपने

अपनों से भी ज्यादा अपने हो जाएं

 

हां, सबसे ताकतवर होता है

सपनों का खिल-मिल जाना


Jan 4, 2011

आह!

तलाश सब जगह की

लेकिन तुम मठ में मिले

नदी की धार में

गुफा की ओट में

हवा की सरकन में

ओस की बूंद में

हथेली में चुपके उस आंसू में

जो सिर्फ तुम्हारी वजह से ही ढलका था

 

फिर तलाश क्यों की

भीड़ में इतने साल

खुद भीड़ बन कर

 

अकेले होकर, अकेले बनकर, अकेलेपन में समाकर

कितने ही मानचित्र घुमड़ आते हैं अंदर

 

इतने गीले दिन, इतनी सूखी रातें, इतने श्मशान, इतने गट्ठर

अपने अंदर उठाकर चलने की वाकई जरूरत थी क्या

 

हिम्मत का न होना

न बांध पाना सब्र

संवाद का न बना पाना कोई पुल

दबे-दबे से कितने दबावों में

सबको खुश रखने की कोशिश

ख्वाहिशों को जीतने की जद्दोजहत

खींच ले गई है कितने ही साल

झुर्रियां पीछे छोड़कर

 

इतना सब होने पर भी पिलपिले होते कागज

उस फूल को अब तक सीने से लगाए धड़क क्यों रहे हैं

जो दशकों पहले के

किसी नर्म अहसास की पुलक थे

 

इतने साल जीकर भी

जीना सीखा कहां

कब्र पर पांव लटके

तो ख्याल आया

अरे, जाना भी तो था

 

लेकिन ये जाना भी कोई जाना हुआ

न नगाड़े बजे, न मन की मांग भरी

न पहना कभी खुशी का लहंगा

 

चलो, जाने से पहले क्यों न

जी लिया जाए एक बार, एक आखिरी शाम

Jan 2, 2011

नव वर्ष में

चलो एक कोशिश फिर से करें

घरौंदे को सजाने की

मैं फिर से चोंच में लाऊंगी तिनके

तुम फिर से उन्हें रखना सोच-विचार कर

 

तुम फिर से पढ़ना मेरी कविता

और ढूंढना अपना अक्स उसमें

 

मैं फिर से बनाउंगी वही दाल, वही भात

तुम ढूंढना उसमें मेरी उछलती-मचलती सरगम

 

मैं फिर से ऊन के गोले लेकर बैठूंगी

फंदों से बनाउंगी फिर एक कवच

तुम तलाशना उसमें मेरी सांसों के उतार-चढ़ाव

 

आज की सुबह ये कैसे आई

इतनी खुशहाल

कुछ सुबहें ऐसी ही होती हैं

जो मंदिर की घंटियां झनझना जाती हैं

 

लेकिन रात का सन्नाटा

फिर क्यों साफ कर जाता है उस महकती स्लेट को

 

चलो, छोड़ो न

छोड़ो ये सब

चलो, किसी पहाड़ी के एक सिरे पर दुबक कर

फिर से सपनों को मुट्ठी में भर लें

चूम लें पास से गुजरते किसी खरगोश को

सरकती हवा को

गुजरते पल को

 

चलो, एक कोशिश और करें

एक बार और