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Sep 20, 2009

बढ़ रही है मीडिया की भूमिका

शशि थरूर की साइट में कांग्रेस के रंग भरे हैं। वे हाथ जोड़ कर कहते दिखते हैं कि वे पूरी शिद्दत के साथ तिरूवनंतपुरम की जनता के लिए काम करेंगे। जनता ने उन पर विश्वास भी किया कि ऐसा ही होगा और इसलिए उन्हें जीत मिली।

 

लेकिन दूसरी तस्वीर कुछ और कहती है। यह तस्वीर छेड़ती है,अट्टहास करती है औऱ छवि के दम को जोर से कम करती है। यहां झटका है। इंडियन एक्सप्रेस की खबर पाठक को फिर से राजनीति के खोखलेपन और आम आदमी के पैसे की उड़ती धज्जियों पर कड़वा कर डालती है।

 

सोचने की बात है कि रोज ट्विट करने वाले,बड़ी बातें लिखने वाले, बुद्धिमान और युवा थरूर पुराने राजनेताओं की तरह पुरानी सोच को पुख्ता करते मिल कैसे गए। इस पूरे घटनाक्रम ने युवा को यह सोचने के लिए झकझोरा है कि क्या युवाओं के राजनीति में आने से वाकई भ्रष्टाचार कम होगा?

 

लेकिन उससे भी बड़ी बात यह है कि जो मोटा बिल उनके और एस एम कृष्णा के नाम बना है, उसका भुगतान वाकई करेगा कौन। जनता को इसे जानने का पूरा हक है और मीडिया को हक है कि वह भी जनता के पैसों की हिफाजत करे।

 

लेकिन जरा सोचिए, पैसों की इस शाही खर्चों के कितने मामलों में जनता सच के आखिरी सिरे तक पहुंच पाई है। जनता को अमूमन खबर का सिर्फ एक सिरा मिलता है। वह कुछ दिनों तक उसे याद करती है, फिर बहुत जल्दी भूल भी जाती है क्योंकि मीडिया की तरह जनता भी जल्दी में है। दूसरे, जनता भ्रष्टाचार को अपनी जिंदगी की सांसों को तरह स्वीकार कर चुकी है। लेकिन इसका एक असर यह भी हुआ है कि जनता में कडवाहट बेतहाशा बढ़ गई है।

 

हाल ही में एक कालेज में छात्रों से जब अपनी पसंदीदा हस्तियों पर एक मोनोग्राम तैयार करने को कहा गया तो सिवाय एक छात्र के, किसी ने भी राजनेता को नहीं चुना और जिसने चुना भी, उसने लालू यादव का चुनाव किया। इसमें भी व्यंग्य है, हास्य है, करूणा है और खीज है।

 

राजनेता और उनके साथ ही उनका ऐशों में पलने वाला परिवार यह भूल जाता है कि बहुत सी नजरें उन पर टिकी रहती हैं। वे समझते हैं, वे नजरें उनसे दूर हैं। वे मीडिया के सच्चे हिस्से से मिलने में कचराते हैं क्योंकि रंगा सियार अपना चेहरा शीशे में देखने से डरता है लेकिन जनता सब जानती है और उस खीज को झेलती है। कभी मौका आता है तो वो अपनी खीज को उतारने में जरा मौका नहीं चूकती।

 

हाल ही में बूटा सिंह, फिर वीरभद्र सिंह और अब एक छोटे टुकड़े के कथित भ्रष्टाचार में थरूर और कृष्णा के नाम के आने से एक बार फिर राजनीति के जर्रे-जर्रे पर कैमरे की नजर और कलम के पैनेपन के मौजूद होने की जरूरत बढ़ गई है। पत्रकार बिरादरी के लिए आने वाले समय में काफी काम है। एक ऐसा काम, जो जन हित में है। यह काम तभी पुख्ता तरीके से हो पाएगा जब पत्रकार ट्रक पर लिखे स्लोगन की तरह राजनेता से दो हाथ की दूरी रखते हुए अपने माइक्रोस्कोप को चौबीसों घंटे तैयार रखेगा। तो तैयार हो जाइए। बिगुल तो कब का बज चुका।

 


(यह लेख 11 सितंबर, 2009 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ)

 

Sep 18, 2009

अश्क में भी हंसी है: वर्तिका नन्दा की कविताएं: 2012

खुशामदीद

पीएम की बेटी ने
किताब लिखी है।
वो जो पिछली गली में रहती है
उसने खोल ली है अब सूट सिलने की दुकान
और वो जो रोज बस में मिलती है
उसने जेएनयू में एमफिल में पा लिया है एडमिशन।
पिता हलवाई हैं और
उनकी आंखों में अब खिल आई है चमक।

बेटियां गढ़ती ही हैं।
पथरीली पगडंडियां
उन्हे भटकने कहां देंगीं!
पांव में किसी ब्रांड का जूता होगा
तभी तो मचाएंगीं हंगामा बेवजह।
बिना जूतों के चलने वाली ये लड़कियां
अपने फटे दुपट्टे कब सी लेती हैं
और कब पी लेती हैं
दर्द का जहर
खबर नहीं होती।
ये लड़कियां बड़ी आगे चली जाती हैं।
ये लड़कियां चाहे पीएम की हों
या पूरनचंद हलवाई की
ये खिलती ही तब हैं
जब जमाना इन्हे कूड़ेदान के पास फेंक आता है
ये शगुन है
कि आने वाली है गुड न्यूज।

बहूरानी (2)

बड़े घर की बहू को कार से उतरते देखा
और फिर देखीं अपनी
पांव की बिवाइयां
फटी जुराब से ढकी हुईं
एक बात तो मिलती थी फिर भी उन दोनों में -
दोनों की आंखों के पोर गीले थे

पैदाइश (3)

फलसफा सिर्फ इतना ही है कि
असीम नफरत
असीम पीड़ा या
असीम प्रेम से
निकलती है
गोली, गाली या फिर
कविता

गजब है (4)

बात में दहशत
बे-बात में भी दहशत
कुछ हो शहर में, तो भी
कुछ न हो तो भी
चैन न दिन में
न रैन में।
मौसम गुनगुनाए तो भी
बरसाए तो भी
शहनाई हो तो भी
न हो तो भी
हंसी आए मस्त तो भी
बेहंसी में भी
गजब ही है भाई
न्यूजरूम !

(यह कविताएं तद्भव के जुलाई 2009 के अंक में प्रकाशित हुईं)

Sep 4, 2009

चूल्हा-चौकी संभालने वाले हाथों में मीडिया

बहुत दिनों बाद उत्तर प्रदेश एक सुखद वजह से सुर्खियों में आया है। खबर है कि बुंदेलखंड की ग्रामीण महिलाओं की मेहनत से  निकाली जा रही अखबार खबर लहरिया को यूनेस्को के किंग सेजोंग साक्षरता अवार्ड, 009 के लिए चुन लिया गया है। इस अखबार को बुंदेलखंड की पिछड़ी जाति की महिलाएं निकाल रही थीं। इस अखबार की खासियत है महिलाओं के हाथों में मीडिया की कमान और साथ ही खबरों की स्थानीयता। इस अखबार में आस-पास के परिवेश के पानी, बिजली, सड़क से लेकर सामाजिक मुद्दे इस अखबार में छलकते दिखते हैं और साथ ही दिखती है इन्हें लिखते हुए एक ईमानदारी और सरोकार।

 

 

दरअसल भारत भर में इस समय जनता के हाथों खुद अपने लिए अखबार चलाने की मुहिम सी ही चल पड़ी है। हाल ही में बुंदेलखंड के एक जिले ओरइया से छपने वाले अखबार मित्रा में इस बात पर सारगर्भित लेख प्रकाशित हुआ कि कैसे प्राथमिक स्कूलों मे दाखिला देते समय जातिगत भेदभाव पुख्ता तौर पर काम करते हैं। इसी तरह वाराणसी से पुरवाई, प्रतापगढ़ से भिंसार, सीतापुर से देहरिया और चित्रकूट से महिला डाकिया का नियमित तौर पर प्रकाशन हो रहा है।

 

इसका सीधा मतलब यह हुआ कि रसोई संभालने वालों ने अब कलम भी थाम ली है। यह भारत का महिला आधारित समाचारपत्र क्रांति की तरफ एक बड़ा कदम है। यहां यह सवाल स्वाभाविक तौर पर दिमाग में आ सकता है कि ग्रामीण महिलाओं ने सूचना और संचार के लिए सामुदायिक रेडियो या फिर ग्रामीण समाचार पत्र का माध्यम ही क्यों चुना। वजह साफ है। मुख्यधारा का मीडिया गांव को आज भी हास्य का विषय ही मानता है और फिर महिलाओं को जगह देना तो और भी दुरूह काम है।ऐसे में सामाजिक कार्यकर्ताओं की मदद से इन महिलाओं ने अपनी आवाज खुद बनने के लिए ऐसे माध्यम को चुना जिस पर न तो मुख्यधारा मीडिया की कोई गहरी दिलचस्पी रही और न ही पुरूषों को। यह तो काफी बाद में समझ में आया कि इन माध्यमों के लोकप्रियता की डगर चल निकलते ही इनमें गहरी रूचि लेने वाले भी गुड़ को देख कर चींटियों की तरह उमड़ने लगे।

 

अकेले सामुदायिक रेडियो की ही मिसाल लें तो आंध्रप्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड, झारखंड और यहां तक कि अंडमान और निकोबार तक में ऐसी महिलाओं की मजबूत जमात खड़ी हो गई है जो विशुद्ध तौर पर पत्रकारिता कर रही हैं। इन महिलाओं के पास भले ही किसी मान्यता प्राप्त नामी संस्थान का पत्रकारिता का डिप्लोमा या डिग्री ने हो, लेकिन दक्षता और मेहनत के मामले में ये किसी से कम नहीं हैं। झारखंड के चला हो गांव में, रांची की पेछुवाली मन के स्वर, उत्तराखंड की हेवल वाणी, मंदाकिनी की आवाज, प्रदीप सामुदायिक रेडियो, कर्नाटक की नम्मा धवनि, केरल का रेडियो अलाकल, राजस्थान के किशोर वाणी समेत ऐसी मिसालों की कमी नहीं जहां जनता ने सामाजिक सरोकारों की डोर खुद अपने हाथों में थाम ली है।

 

यहां एक मजेदार घटना का उल्लेख करना जरूरी लगता है। बुंदेखंड के एक गांव आजादपुरा में पानी की जोरदार किल्लत रहती है। यहां एक ही कुंआ था जिसकी कि मरम्मत की जानी काफी जरूरी थी। यहां की महिलाएं स्थानीय अधिकारियों से कुछेक बार इसे ठीक कराने के लिए कहती रहीं लेकिन बात नहीं बनी। लेकिन जैसे ही इन महिलाओं ने कुंए की बदहाली और उसकी मरम्मत की जरूरत की बात अपने रेडियो स्टेशन के जरिए की, स्थानीय प्रशासन ने तुरंत नींद से जगते हुए चार दिनों के भीतर ही उनका कुंआ ठीक करवा दिया।  इस एक घटना ने महिलाओं को रेडियो की ताकत का आभास तो करवाया ही, लेकिन साथ ही यह हिम्मत भी दी कि सही नीयत और तैयारी से अगर संचार का खुद इस्तेमाल किया जाए तो रोजमर्रा के बहुत-से मसले खुद ही हल किए जा सकते हैं। इस इलाके में सामुदायिक रेडियो के लिए 5 रिपोर्टर और दो संचालक हैं। इसके अलावा एक प्रबंध समिति भी है जिसका मुखिया सरपंच है। इसके अलावा इसमें किसानों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की भरपूर भागदारी है।

 

बहरहाल खबर लहरिया  की इस उपलब्धि को भारत में महिलाओं के जरिए सूचना क्रांति की एक बेहद बड़ी मुबारक खबर के रूप में देखा जाना चाहिए। एक ऐसे दौर में, जब कि भारत में पूंजी केंद्रित पेज तीनीय पत्रकारिता का जन्म हो चुका है और वह एक बिगड़े बच्चे में तब्दील होकर पत्रकारिता के अभिभावकीय रूप को अपनी डफली के मुताबिक नचा रहा है, ऐसे में स्थानीय मीडिया से उम्मीदें और भी बढ़ जाती हैं। वैसे भी स्थानीय मुद्दों के लिए मुख्यधारा के पास समय, संसाधनों, विज्ञापनों से लेकर प्रशिक्षण तक न जाने किन-किन सुविधाओं की कमी हमेशा ही रही है। जहां रवि नहीं होता, वहां कवि भले ही पहुंच जाता हो लेकिन आज भी जिन गांवों के कुएं सूख गए हैं और जहां पहुंचने के लिए हेमामालिनी के गालों सरीखी सड़कें नहीं हैं, वहां मुख्यधारा मीडिया को पहुंचने में वैसी ही तकलीफ होती है जैसी किसी आईपीएस के बेटे को डीटीसी की बस में बैठने में। इसलिए बेहतर यही होगा कि गांववाले अपनी समस्याओं के निपटारे के लिए अपना माइक और अपनी कलम खुद ही थामें। मुख्यधारा के तलब लिए गांव का दर्शन नेताओं की ही तरह चुनावी मौसम में ही सही है। साल के बाकी पौने चार सालों का जिम्मा शायद स्थानीय ग्रामाण मीडिया खुद ही उठा सकता है।

 

तो इसका मतलब यह हुआ कि चूल्हा-चौकी संभालने वाली अब सही मायने में सशक्त हो चली हैं। लगता है, कहीं दूर से तालियों की आवाज सुनाई दे रही है।

 

 

(यह लेख दैनिक भास्कर में 18 अगस्त, 2009 को प्रकाशित हुआ)