Jan 28, 2009

चलते-चलते यूं ही ..

(1)

बड़े घर की बहू को कार से उतरते देखा
और फिर देखीं अपनी
पांव की बिवाइयां
फटी जुराब से ढकी हुईं
एक बात तो मिलती थी फिर भी उन दोनों में -
दोनों की आंखों के पोर गीले थे

(2)

फलसफा सिर्फ इतना ही है कि
असीम नफरत
असीम पीड़ा या
असीम प्रेम से निकलती है
गोली, गाली या फिर
कविता

Jan 22, 2009

कैमरे और कलम की संवेदनहीनता

आंकड़े बहुत कुछ कहते हैं। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो और यूपी पुलिस के आंकड़ों ने इस बार जो तस्वीर पेश की है, वह चौंकाने वाली भी है और चेताने वाली भी। आंकड़ों के मुताबिक बलात्कार और घरेलू हिंसा के मामलों में उत्तर प्रदेश अव्वल है। खास तौर पर गौर करने की बात यह है कि रिपोर्ट में पाया गया है कि हालांकि देश भर में 2006 की तुलना में 2007 में महिला अपराध में 12.7 प्रतिशत की वृद्धि हुई है लेकिन अपराधों के उफान के मामले में भाषी राज्य पहले नंबर पर हैं।

लेकिन अपराध के आंकड़ों के ग्राफ की सेहत के मद्देनजर यह टटोलना बेहद जरूरी लगता है कि समाज में अपराध ज्यादा तेजी से बढ़ रहा है या फिर अपराध को लेकर संवेदनहीनता।इस तरह की संवेदनहीनता दहेज हत्याओं के मामले में तो दिखती ही रही है लेकिन पिछले एक दशक में बलात्कार भी इस श्रेणी में शामिल होता जा रहा है। वैसे भी बलात्कार की कवरेज स्वाद और टीआरपी के मुनाफे के चलते कई परतों से होकर तो गुजरती ही है।

मिसाल के तौर पर अभी हाल ही में दिल्ली से सटे नौएडा में जब दिनदहाड़े बलात्कार की घटना हुई तो एक बार फिर यह सवाल उचल कर सामने आ गया। हालांकि इस बार उत्तर प्रदेश पुलिस ने अतिरिक्त सतर्कता दिखाते हुए 24 घंटे के भीतर ही आरोपियों को पकड़ कर मामले को तत्काल ‘ सुलझा ’ लिया लेकिन फिर भी अपराध को लेकर सामाजिक प्रशासनिक नजरिया बहुत आश्वस्त करता दिखाई नहीं दिया।

इस पूरे घटनाक्रम में कुछ बातें साफ तौर पर उभर कर आईं हैं। पहली बात तो यह कि मीडिया ने खुलकर यह बताया कि बलात्कार पीड़ित लड़की कहां की रहने वाली थी, वह कहां पढ़ती थी, जिस युवक के साथ वह शॉपिंग कांपलेक्स में गई थी, उसका नाम क्या था और उसके पिता दिल्ली पुलिस में क्या करते हैं वगैरह। कहने का मतलब यह कि इस घटना की रिपोर्टिंग करते समय टीवी चैनलों ने तो अपने जाने-माने स्वभाव के मुताबिक कोई एतिहात नहीं बरती लेकिन साथ ही प्रिंट मीडिया भी पत्रकारिता के मूलभूत उसूलों से भटकता हुआ झटपट रिपोर्टिंग करता हुआ दिखा।

वैसे पत्रकारिता की बुनियादी पढ़ाई में ही इन दिनों भी कम से कम एकाध बार तो यह सबक बताया ही जाता है कि बलात्कार और बाल-अपराध के मामलों की रिपोर्ताज करते समय किन तत्वों को ध्यान में रखा जाना चाहिए लेकिन यह भी सच है कि निजी चैनलों की आपसी आगे निकलो प्रतियोगिता के चलते ऐसे संवेदनशील मु्द्दे भी बाजारू रिपोर्टिंग के खतरे के शिकार होते चले गए हैं।

दूसरा मुद्दा है - मीडिया का अपराध और अपराधी के प्रति रवैया। घटना के अगले ही दिन दिल्ली से प्रकाशित होने वाला एक प्रमुख अंग्रेजी दैनिक उस गांव के सरपंच का इंटरव्यू छापता है जहां यह आरोपी रहते थे। इंटरव्यू का मर्म यह है कि ये लड़के निर्दोष हैं क्योंकि उन्होंने सिर्फ बलात्कार ही किया है। यह भी कहा जाता है कि असल में बलात्कार तो लड़की के दोस्त ने किया था लेकिन चूंकि तब ये लड़के क्रिकेट खेल कर पास से ही गुजर रहे थे, इसलिए इन्हें ही फंसा दिया गया। इंटरव्यू में बताया गया है कि यह युवक अमीर परिवारों के हैं और गांव में इनके बड़े-बड़े घर हैं। इस पूरी कहानी को अखबार के पहले पन्ने पर प्रमुखता के साथ छापा गया है।

दरअसल अपराध होने असामान्य न माना जाना एक फितरत है लेकिन इस फितरत के आगे जाकर अपराध को जायकेदार और एक-पक्षीय बनाए जाने की कोशिश खतरनाक जरूर है। यही हो रहा है। एक तो मीडिया पढ़ाने वाले ज्यादातर दुकान सरीखे संस्थान नई फौज को पत्रकारिता के नाजुक मामलों और उससे जुड़े कानून को बताने में समय खर्च करना नहीं चाहते और दूसरे चैनलों में नौकरी पाने के बाद मुनाफे की होड़ में सब कुछ जल्द करवाने का ऐसा दबाव बना रहता है कि सही-गलत की लक्ष्मण रेखा पर विचार ही नहीं किया जाता।

एक बात और। भारत में आज भी महिला पत्रकारों की तादाद 15 प्रतिशत से ज्यादा बढ़ी नहीं है। इनमें भी प्रमुख बीट पाने वाली महिलाएं बहुत ही कम हैं। इस में कोई शक हो ही नहीं सकता कि अगर महिलाओं को ऐसे नाजुक मामलों की रिपोर्टिंग दी जाती है तो वे खबर से काफी हद तक न्याय कर पाती हैं लेकिन उन्हें इस मौके को देने की कमान फिर एक पुरूष के हाथ ही होती है और मर्जी न होने पर उन्हें संवेदनशील घटना की रिपोर्टिंग का मौका मिल ही नहीं पाता। पर यह भी सच है कि जो पुरूष खुद बलात्कार करता है, उसकी कलम ऐसी घटना को रिपोर्ट करते समय संवेदनशीलता जगेगी, इसकी उम्मीद करना बहुत मायने नहीं रखता।

इसलिए मामला सिर्फ यह नहीं कि अपराधों को लेकर नेशनल क्राइम रिकार्ट ब्यूरो क्या आंकड़े देता है। ब्यूरो तो 70 के दशक से ही आंकड़े तश्तरी में सजाने का औपचारिक काम कर ही रहा है। मामला तो यह है कि जिस देश में 1970 से लेकर अब तक अपराध दर में 7000 प्रतिशत का इजाफा हो गया हो, वहां आज भी अपराध को लेकर एक सख्त सोच पनप ही नहीं पाई है। लगता यही है कि भारतीय समाज अपराध होने की इंतजार ज्यादा करता है और उसे न घटने देने की कोशिश कम।

यह त्रासदी ही है कि एक ऐसा देश जहां भारत में हर साल बलात्कार के 19000 से ज्यादा मामले दर्ज होते हैं और हर तीन मिनट में एक महिला पर किसी न किसी तरह का अपराध किया जाता है, वहां आज भी वलात्कार की रिपोर्टिंग को लेकर कोई खाका तैयार ही नहीं किया गया है। यह वही देश है जहां महिला आयोग समय-समय पर चीखता दिखाई देता है लेकिन यह चीख इस मामले में कोई ठोस काम नहीं कर सकी है। यह वही देश है जहां भारतीय प्रेस परिषद का गठन इस वादे के साथ किया गया था कि यह प्रेस की अनियमितताओं पर नजर रखेगा लेकिन नजर रखने के अलावा इस पर हुआ क्या? बेशक पेज थ्री की रिपोर्टिंग में हमने झंडे गाढ़ दिए हैं और टीवी और अखबारों में कॉरपोरेट और विज्ञापन-प्रेरित खबरों के पेट का आकार भी बढ़ा है लेकिन बलात्कार की रिपोर्टिंग के लिए अभी भी मानवीय भावनाएं जग नहीं सकी हैं। बलात्कार की रिपोर्टिंग का किस्मत भी शायद वही है जो भारत की एक औसत महिला की है। लेकिन सोचना चाहिए कि सड़क पर हुए एक बलात्कार के बाद जब मीडिया अपने कैमरों और कलम से दोबारा बलात्कार करता है तो उस पर कोई धारा क्यों नहीं लगती?

(यह लेख 20 जनवरी, 2009 को अमर उजाला में प्रकाशित हुआ)

Jan 19, 2009

प्रेम

मुमकिन है बहुत कुछ
आसमान से चिपके तारे अपने गिरेबां में सजा लेना
शब्दों की तिजोरी को लबालब भर लेना

देखो तो इंद्रधनुष में ही इतने रंग आज भर आए
और तुम लगे सोचने
ये इंद्रधनुष को आज क्या हो गया!

सुर मिले इतने कि पूछा खुद से
ये नए सुरों की बारात यकायक कहां से फुदक आई?

भीनी धूप से भर आई रजाई
मन की रूई में खिल गए झम-झम फूल

प्रियतम,
यह सब संभव है, विज्ञान से नहीं,
प्रेम में आंखें खुली हों या मुंदी
जो प्रेम करता है
उसके लिए कुछ सपना नहीं
बस, जो सोच लिया, वही अपना है।

Jan 16, 2009

क्योंकि कविता भी बदलती है

बचपन में कविता लिखी
तो ऐसा उल्लास छलका
कि कागजों के बाहर आ गया।

यौवन की कविता
बिना शब्दों के भी
सब बुदबुदाती गई ।

उम्र के आखिरी पड़ाव में
मौन शून्यता के दरम्यान
मन की चपलता
कालीन के नीचे सिमट आई।

अब उस पर कविता लिखती औरत के पांव हैं
बुवाइयों भरे।

Jan 15, 2009

गजब है

बात में दहशत
बे-बात में भी दहशत
कुछ हो शहर में
तो भी
कुछ न हो तो भी

चैन न दिन में
न रैन में

मौसम गुनगुनाए तो भी
बरसाए तो भी
शहनाई हो तो भी
न हो तो भी
हंसी आए मस्त तो भी
बेहंसी में भी

गजब ही है भाई
न्यूजरूम !

Jan 8, 2009

बहूरानी

नौकरानी और मालकिन
दोनों छिपाती हैं एक-दूसरे से
अपनी चोटों के निशान
और दोनों ही लेती हैं
एक-दूसरे की सुध भी

मर्द रिक्शा चलाता हो
या हो बड़ा अफसर
इंसानियत उसके बूते की बात नहीं।

बलात्कार

लड़की का बलात्कार हुआ था
मीडिया पूछ रही थी
कैसा लग रहा है उसे
जिस युवक ने किया था
शादी का वादा
वो उसके घर का रास्ता
अब खोज नहीं पाता
अब है फिर पास वही मां

सहारा देने की ताकत पुरूष में कहां
इस ताकत के कैप्सूल अभी बने नहीं

Jan 4, 2009

नेलपालिश

जब भी सपने बुनने की धुन में होती हूं
गाती हूं अपने लिखे गीत
अपने कानों के लिए
तो लगाने लगती हूं जाने-अनजाने अपने नाखूनों पर नेलपालिश।

एक-एक नाखून पर लाल रंग की पालिश
जब झर-झर थिरकने लगती है
मैं और मेरा मन-दोनों
रंगों से लहलहा उठते हैं।

इसलिए मुझसे
मेरे होठों की अठखेलियों का हक
भले ही लूटने की कोशिश कर लो
लेकिन नेलपालिश चिपकाने का
निजी हक
मुझसे मत छीनना।
नाखूनों पर चिपके ये रंग
मेरे अश्कों को
जरा इंद्रधनुषी बना देते हैं और
मुझे भी लगने लगती है
जिंदगी जीने लायक।

तुम नहीं समझोगे
ये नाखून मुझे चट्टानी होना सिखाते हैं।
इनके अंदर की गुलाबी त्वचा
मन की रूई को जैसे समेटे रखती है।

ये लाल-गुलाबी नेलपालिश की शीशियां
मेरे बचपन की सखी थीं
अब छूटते यौवन का प्रमाण।

ड्रैसिंग टेबल पर करीने से लगी ये शीशियां
मुझे सपनों के ब्रश को
अपने सीने के कैनवास पर फिराने में मदद करती हैं।
ये मेरा उड़नखटोला हैं।
मुझे इनसे खेलने दो।

पत्रकार होने से क्या होता है?
मन को भाती तो
नेलपालिश की महक ही है,
माइक की खुरदराहट नहीं।

(यह कविता जनवरी 2009 के नया ज्ञानोदय में प्रकाशित हुई)

एक अदद इंतजार

सपने बेचने का मौसम आ गया है।
रंग-बिरंगे पैकेज में
हाट में सजाए जाएंगे- बेहतर रोटी,कपड़ा,मकान,पढ़ाई के सपने।

सपनों की हांक होगी मनभावन
नाचेंगें ट्रकों पर मदमस्त हुए
कुछ फिल्मी सितारे भी
रटेंगे डायलाग और कभी भूल भी जाएंगे
किस पार्टी का करना है महिमा गान।

जनता भी डोलेगी
कभी इस पंडाल कभी उस
माइक पकड़े दिखेगें उनमें कई जोकर से
जो झूठ बोलेगें सच की तरह

और जब होगा चुनाव
अंग्रेजदां भारतीय उस दिन
देख रहे होंगे फिल्म
या कर रहे होंगे लंदन में शापिंग
युवा खेलेंगे क्रिकेट
और हाशिए वाले लगेंगे लाइनों में
हाथी, लालटेन, पंजे या कमल
लंबी भीड़ में से किसी एक को चुनने।

वो दिन होगा मन्नत का
जन्नत जाने के सपनों का
दल वालों को मिलेंगे पाप-पुण्य के फल।

उस दिन मंदिर-मस्जिद की तमाम दीवारें ढह जाएंगी
चश्मे की धूल हो जाएगी खुद साफ
झुकेगा सिर इबादत में
दिल में उठेगी आस
कि एक बार - बस एक बार और
कुर्सी किसी तरह आ जाए पास।

सच तो है।
अगली पीढ़ियों के लिए आरामतलबी का सर्टिफिकेट
इतनी आसानी से तो नहीं मिल सकता।

(यह कविता जनवरी 2009 के नया ज्ञानोदय में प्रकाशित हुई)