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Workshop on Sound: Juxtapose pre-event: March 2024

Aug 14, 2008

साहित्य को विज्ञापन का लाइफ सपोर्ट

एक जानी-मानी साप्ताहिक पत्रिका ने हाल ही में असगर वजाहत और रविंद्र कालिया के साथ की गई बातचीत छापी। बातचीत का एक मुद्दा था- हिंदी लेखकों की बिगड़ती आर्थिक स्थिति। बातचीत में निराशा भरी थी जैसे कि कुछ भी किया ही नहीं जा सकता। इस निराशा में भारतीय समाज की पूर्वाग्रहों की अपनी-अपनी खोलियों में जीए जाने की नियति थी और अपने पेशे को लेकर जातिवादी सोच भी। भारत में अलग-अलग पेशों के पूर्वाग्रहों की अपनी-अपनी खोलियां हैं। हर पेशे के पूर्वाग्रहों का अपना व्याकरण है और अपना गणित। पेशे के प्रति प्रतिबद्ध उसी को माना जाता है जो इस व्याकरण और गणित में निपुण हो। साहित्य जैसा सर्वविषय समाय क्षेत्र भी इसका अपवाद नहीं। इसके मठाधीशों में व्याप्त पूर्वग्रहों में एक यह है कि सब नौकरशाह निज सुविधा के लिए काम करते हैं और सब राजनेता निजहित में - तो साहित्य जैसे जनहित सुखाय विषय के प्रति इनकी प्रतिबद्धता कहां से आए? साहित्यकारों की आर्थिक सुरक्षा जैसे विषय पर बातचीत में भी यही पूर्वाग्रह दिखता है। जमीनी सच्चाई भले ही अलग हो। कौन नहीं जानता कि साहित्य और कला को राज्य के स्तर पर आर्थिक प्रश्रय दिलाने की जरूरत पर सबसे पहले जोर मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने दिया। मध्यप्रदेश के सूचना एवं प्रचार निदेशालय में उन्होंने उस काडर के संवेदनशील आईएएस अफसरों को समय-समय पर नियुक्त करवाया। अशोक वाजपेयी से लेकर सुदिप बनर्जी इसी श्रृंखला के सर्वचर्चित नाम रहे। परंपरा चलती रही। सरकार बदलने के बावजूद आज विरोधी विचारधारा वाली साहित्यिक पत्रिकाओं को भी विज्ञापन दिया जाता है। छत्तीसगढ़ ने भी इसी परंपरा का निर्वाह किया अलग होकर। हां, एक चूक इस परंपरा में हो गई- यह दोनों सरकारें आज भी अपनी मन-मर्ज़ी से साहित्यिक पत्रिकाओं को तभी विज्ञापन देती हैं जब कोई विज्ञापन- अर्ज़ी लेकर बतौर याचक सामने आए। इस चूक से वाकिफ दिल्ली सरकार की मुख्यमंत्री ने देश की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं को बिना मांगे विज्ञापन देने का फैसला किया। उनकी सोच थी कि साहित्य को आर्थिक मदद देने का राज्य सरकार का दायित्व आज इसलिए बढ़ गया है कि बाजार ने साहित्य को हाशिए पर धकेल दिया है। दीर्घकालिकता प्रदान करने के खयाल से उन्होंने इन पत्रिकाओं को पांच साल के अवधि के लिए सूचीबद्ध करने की ठानी। इरादा था कि मदद बदस्तूर जारी रहे, सरकार किसी की भी हो। उनके आशय को सूचना-प्रचार निदेशालय के वेबसाइट पर डाला गया। दिल्ली स्थित तमाम पत्रिकाओं के प्रतिनिधियों को बुलाकर समझाया गया कि किस तरह आवेदन डाला जाए और साथ ही उनसे अनुरोध किया गया कि यह बात मुंह जुबानी चारों तरफ फैलायी जाए। जब आवेदन पत्र आए तो पाया गया कि विज्ञापन देने की वर्तमान शर्तों में जबरदस्त छूट दिए बिना मुश्किल से तीन या चार पत्रिकाएं ही सूचीबद्ध की जा सकेंगी। कई पत्रिकाओं के पास आरएनआई सर्टिफिकेट तक नहीं था। सूचीबद्धता की मुख्य शर्तों में खुलकर छूट देने का फैसला लिया गया। 22 आवेदन में से 16 पत्रिकाए सूचीबद्ध करने लायक बनीं। इन पत्रिकाओं को साल में अधिक से अधिक आठ विज्ञापन देने का फैसला किया गया। श्वेत-श्याम पेज के लिए 20 हजार और रंगीन पेज के लिए 25 हजार दर तय हुई। जैसे यह सब घोषित हुआ, दिल्ली और कुछ बाहर की साहित्यिक पत्रिकाएं सामने आ खड़ी हुईं कि उन्हें क्यों छोड़ा गया ? उन्हें बताया गया कि ऐसा या तो उनके आवेदन पत्र न मिलने के कारण हुआ या फिर उन्हें मिलने वाले किसी संस्थागत आर्थिक आधार के कारण। बहरहाल दोनों वर्गों की छूटी हुई पत्रिकाओं से दोबारा आवेदन करने के लिए कहा गया। आप चाहें तो इस फैसले में राजनीति भी ढूंढ सकते हैं। खासकर तब जब चुनाव बहुत दूर नहीं हैं। बावजूद इसके हमारे पूर्वाग्रहों के विपरीत कुछ राजनेता या नौकरशाह भी साहित्य के प्रति अपनी प्रतिबद्धता अपने फैसलों से साबित करते रहे हैं, भले ही इनकी संख्या कम हो। जरूरी है कि यह मुहिम जोर पकड़े। अगर समूचे हिंदी भाषी प्रदेशों के मुख्यमंत्री इस बीड़े को उठाने में प्रतिबद्ध हो जाएं तो साहित्यकारों की चर्चा का विषय ही बदल जाएगा। चर्चा यह होना लगेगी कि आर्थिक संपन्नता के बावजूद साहित्यिक पत्रिकाओं के मालिक बनाम संपादक अपने रचनाकारों को समुचित पारिश्रमिक क्यों नहीं देते ? अभी तो वे कहते हैं कि पैसे हों तो दूं । पर बारी अब साहित्यकारों की है। खासतौर पर साहित्यक पत्रिकाओं के मालिकों की। दिल्ली का हवाला देकर उन्हें अन्य हिंदी प्रदेशों की मुख्यमंत्री और सूचना और प्रचार निदेशालय पर दार्घकालिक सूचीबद्ध करने का सकारात्मक दबाव बनाना होगा। साथ ही उन्हें हिंदी अखबारों का सहारा लेकर ऐसे दबाव की जरूरत की जागृति पैदा करनी होगी। मेरे विचार से हिंदी भाषी प्रदेश के किसी भी पार्टी का कोई मुख्यमंत्री ऐसा तंगदिल नहीं होगा जो उस राज्य के सूचना-प्रचार निदेशालय द्वारा ऐसा प्रस्ताव प्रस्तुत किए जाने पर अपनी स्वीकृति देने में हिचकिचाए। लेकिन इस रास्ते को समतल बनाने के लिए मीडिया को भी अपनी आवाज को बुलंद करना होगा। (यह लेख १० अगस्त, २००८ को दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित हुआ)

Aug 13, 2008

सच यही है

बेटा पैदा होता है
ताउम्र रहता है बेटा ही।

बेटी पैदा होती है
और कुछ ही दिनों में
बन जाती है बेटा।

फिर ताउम्र वह रहती है
बेटी भी-बेटा भी।

Aug 12, 2008

@Hindustan Column



पीएम की बेटी

पीएम की बेटी ने
किताब लिखी है।
वो जो पिछली गली में रहती है
उसने खोल ली है अब सूट सिलने की दुकान
और वो जो रोज बस में मिलती है
उसने जेएनयू में एमफिल में पा लिया है एडमिशन।
पिता हलवाई हैं और
उनकी आंखों में अब खिल आई है चमक।

बेटियां गढ़ती ही हैं।
पथरीली पगडंडियां
उन्हे भटकने कहां देंगीं!
पांव में किसी ब्रांड का जूता होगा
तभी तो मचाएंगीं हंगामा बेवजह।
बिना जूतों के चलने वाली ये लड़कियां
अपने फटे दुपट्टे कब सी लेती हैं
और कब पी लेती हैं
दर्द का जहर
खबर नहीं होती।

ये लड़कियां बड़ी आगे चली जाती हैं।

ये लड़कियां चाहे पीएम की हों
या पूरनचंद हलवाई की
ये खिलती ही तब हैं
जब जमाना इन्हे कूड़ेदान के पास फेंक आता है
ये शगुन है
कि आने वाली है गुड न्यूज।

Aug 8, 2008

टेलीविजन और अपराध पत्रकारिता

मीडिया और अपराध की परिभाषा जर्मन समाजशास्त्री जर्गन हैबरमास ने 18वीं सदी से लेकर अब तक के मीडियाई विकास के सोपानों को गौर से पढ़ा और पाया कि इसके बीज लंदन, पेरिस और तमाम यूरोपीय देशों में पब्लिक स्फीयर के आस-पास विकसित हुए। यहां के कॉफी हाउस और सैलून से पब्लिक डीबेट परवान चढ़े लेकिन यह सिलसिला लंबा नहीं चला। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि राजनीति का मंचन संसद और मीडिया में होता है जबकि जनता के हितों पर आर्थिक हित हावी हो जाते हैं। यह माना गया कि जनता की राय विचारों के आदान-प्रदान के खुले प्रवाह के जरिए नहीं बल्कि बड़े लोगों के प्रभाव और तोड़ने-मरोड़ने के अंदाज पर निर्भर करती है। जाहिर है कि अक्सर कवायद जिस जनता के नाम पर की जाती है, वह असल में आत्म-सुख से प्रेरित होकर दिमागी ताने-बाने का शिकार होती है। अपराध के नाम से तेजी से कटती फसल भी इसी अंदेशे की तरफ इशारा करते दिखती है। करीब 225 साल पुराने प्रिंट मीडिया और 60 साल से टिके रहने की जद्दोजहद कर रहे इलेक्ट्रानिक मीडिया की खबरों का पैमाना अपराध की बदौलत अक्सर छलकता दिखाई देता है। खास तौर पर टेलीविजन के 24 घंटे चलने वाले व्यापार में अपराध की दुनिया खुशी की सबसे बड़ी वजह रही है क्योंकि अपराध की नदी कभी नहीं सूखती। पत्रकार मानते हैं कि अपराध की एक बेहद मामूली खबर में भी अगर रोमांच, रहस्य, मस्ती और जिज्ञासा का पुट मिला दिया जाए तो वह चैनल के लिए आशीर्वाद बरसा सकती है। लेकिन जनता भी ऐसा ही मानती है, इसके कोई पुख्ता सुबूत नहीं हैं। बुद्धू बक्सा कहलाने वाला टीवी अपने जन्म के कुछ ही साल बाद इतनी तेजी से करवटें बदलने लगेगा, इसकी कल्पना आज से कुछ साल पहले शायद किसी ने भी नहीं की होगी लेकिन हुआ यही है और यह बदलाव अपने आप में एक बड़ी खबर भी है। मीडिया क्रांति के इस युग में हत्या, बलात्कार, छेड़-छाड़, हिंसा- सभी में कोई न कोई खबर है। यही खबर 24 घंटे के चैलन की खुराक है। अखबारों के पेज तीन की जान हैं। इसी से मीडिया का अस्तित्व पल्लवित-पुष्पित हो सकता है। नई सदी के इस नए दौर में यही है- अपराध पत्रकारिता और इसे कवर करने वाला अपराध पत्रकार भी कोई मामूली नहीं है। हमेशा हड़बड़ी में दिखने वाला, हांफता-सा, कुछ खोजता सा प्राणी ही अपराध पत्रकार है जो तुरंत बहुत कुछ कर लेना चाहता है। पिछले कुछ समय में मीडिया का व्यक्तित्व काफी तेजी के साथ बदला है। सूचना क्रांति का यह दौर दर्शक को जितनी हैरानी में डालता है, उतना ही खुद मीडिया में भी लगातार सीखने की ललक और अनिवार्यता को बढ़ाता है। सबसे ज्यादा हैरानी की बात यह है कि इस क्रांति ने देश भर की युवा पीढ़ी में मीडिया से जुड़ने की अदम्य चाहत तो पैदा की है लेकिन इस चाहत को पोषित करने के लिए लिखित सामग्री और बेहद मंझा हुआ प्रशिक्षण लगभग नदारद है। ऐसे में सीमित मीडिया लेखन और भारतीय भाषाओं में मीडिया संबंधी काफी कम काम होने की वजह से मीडिया की जानकारी के स्रोत तलाशने महत्वपूर्ण हो जाते हैं। मीडिया के फैलाव के साथ अपराध रिपोर्टिंग मीडिया की एक प्रमुख जरुरत के रुप में सामने आई है। बदलाव की इस बयार के चलते इसके विविध पहलुओं की जानकारी भी अनिवार्य लगने लगी है। असल में 24 घंटे के न्यूज चैनलों के आगमन के साथ ही तमाम परिभाषाएं और मायने तेजी से बदल दिए गए हैं। यह बात बहुत साफ है कि अपराध जैसे विषय गहरी दिलचस्पी जगाते हैं और टीआरपी बढ़ाने की एक बड़ी वजह भी बनते हैं। इसलिए अब इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यह भी माना जाता है कि अपराध रिपोर्टिंग से न्यूज की मूलभूत समझ को विकसित करने में काफी मदद मिलती है। इससे अनुसंधान, संयम, दिमागी संतुलन और निर्णय क्षमता को मजबूती भी मिलती है। जाहिर है जिंदगी को बेहतर ढंग से समझने में अपराधों के रुझान का बड़ा योगदान हो सकता है। साथ ही अपराध की दर पूरे देश की सेहत और तात्कालिक व्यवस्था का भी सटीक अंदाजा दिलाती है। अपराध रिपोर्टिंग की विकास यात्रा अपराध के प्रति आम इंसान का रुझान मानव इतिहास जितना ही पुराना माना जा सकता है। अगर भारतीय ऐतिहासिक ग्रंथों को गौर से देखें तो वहां भी अपराध बहुतायत में दिखाई देते हैं। इसी तरह कला, साहित्य, संस्कृति में अपराध तब भी झलकता था जब प्रिंटिग प्रेस का अविष्कार भी नहीं हुआ था लेकिन समय के साथ-साथ अपराध को लेकर अवधारणाएं बदलीं और मीडिया की चहलकदमी के बीच अपराध एक 'बीट' के रुप में दिखाई देने लगा। अभी दो दशक पहले तक दुनिया भर में जो महत्व राजनीति और वाणिज्य को मिलता था, वह अपराध को मिलने की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। फिर धीरे-धीरे लंदन के समाचार पत्रों ने अपराध की संभावनाओं और इस पर बाजार से मिलने वाली प्रतिक्रियाओं को महसूस किया और छोटे-मोटे स्तर पर अपराध की कवरेज की जाने लगी। बीसवीं सदी के दूसरे दशक के आस-पास टेबलॉयड के बढ़ते प्रभाव के बीच भी अपराध रिपोर्टिंग काफी फली-फूली। इसकी एक बड़ी वजह यह भी थी कि दुनिया भर में आतंकवाद किसी न किसी रूप में हावी था और बड़ा आतंकवाद अक्सर छोटे अपराध से ही पनपता है, यह भी प्रमाणित है। इसलिए अपराधों को आतंकवाद के नन्हें रुप में देखा-समझा जाने लगा। अपराध और खोजी पत्रकारिता ने जनमानस को सोचने की खुराक भी सौंपी। वुडवर्ड और बर्नस्टन के अथक प्रयासों की वजह से ही वाटरगेट मामले का खुलासा हुआ था जिसकी वजह से अमरीका के राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन को अपना पद तक छोड़ना पड़ा था। इसी तरह नैना साहनी मामले के बाद सुशील शर्मा का राजनीतिक भविष्य अधर में ही लटक गया। उत्तर प्रदेश के शहर नोएडा में सामने आए निठारी कांड की गूंज संसद में सुनाई दी। जापान के प्रधानमंत्री तनाका को भी पत्रकारों की जागरुकता ही नीचा दिखा सकी। इसी तरह इंडियन एक्सप्रेस ने बरसों पहले कमला की कहानी के जरिए यह साबित किया था कि भारत में महिलाओं की ख़रीद-फरोख़्त किस तेज़ी के साथ की जा रही थी। यहां तक कि भोपाल की यूनियन कार्बाइड के विस्फोट की आशंका आभास भी एक पत्रकार ने दे दिया था। इस तरह की रिपोर्टिंग से अपराध और खोजबीन के प्रति समाज की सोच बदलने लगी। कभी जनता ने इसे सराहा तो कभी नकारा। डायना की मौत के समय भी पत्रकार डायना के फोटो खींचने में ही व्यस्त दिखे और यहां भारत में भी गोधरा की तमाम त्रासदियों के बीच मीडिया के लिए ज्यादा अहम यह था कि पहले तस्वीरें किसे मिलती हैं। इसी तरह संसद पर हमले से लेकर आरुषि मामले तक घटनाएं एक विस्तृत दायरे में बहुत दिलचस्पी से देखी गई। धीरे-धीरे अपराध रिपोर्टिंग और खोजबीन का शौक ऐसा बढ़ा कि 90 के दशक में, जबकि अपराध की दर गिर रही थी, तब भी अपराध रिपोर्टिंग परवान पर दिखाई दी। हाई-प्रोफाइल अपराधों ने दर्शकों और पाठकों में अपराध की जानकारी और खोजी पत्रकारता के प्रति ललक को बनाए रखा। अमरीका में वाटर गेट प्रकरण से लेकर भारत में नैना साहनी की हत्या तक अनगिनित मामलों ने अपराध और खोजबीन के दायरे को एकाएक काफी विस्तार दिया। टेलीविजन के युग में अपराध पत्रकारिता अखबारों के पेज नंबर तीन में सिमटा दिखने वाला अपराध 24 घंटे की टीवी की दुनिया में सर्वोपरि मसाले के रुप में दिखाई लगा। फिलहाल स्थिति यह है कि तकरीबन हर न्यूज चैनल में अपराध पर विशेष कार्यक्रम किए जाने लगे हैं। अब अपराध को मुख्य पृष्ठ की खबर या टीवी पर पहली हेडलाइन बनाने पर किसी को कोई एतराज नहीं होता। मीडिया मालिक यह समझने लगे हैं कि अब दर्शक की रूचि राजनीति से कहीं ज्यादा अपराध में है। इसलिए इसके कलेवर को लगातार ताजा, दमदार और रोचक बनाए रखना बहुत जरुरी है। लेकिन अगर भारत में टेलीविजन के शुरुआती दौर को टटोलें तो वहां भी प्रयोगों की कोशिश होती दिखती है। 1959 में भारत में टेलीविजन का जन्म सदी की सबसे बड़ी घटनाओं में से एक था। तब टीवी का मतलब विकास पत्रकारिता ज्यादा और खबर कम था। वैसे भी सरकरी हाथों में कमान होने की वजह से टीवी की प्राथमिकताओं का कुछ अलग होना स्वाभाविक भी था। भारत में दूरदर्शन के शुरुआती दिनों में इसरो की मदद से साइट नामक परियोजना की शुरुआत की गई थी ताकि भारत में खाद्य के उत्पादन को प्रोत्साहित किया जा सके। यह भारत के विकास की दिशा में एक ठोस कदम था। इसने सामुदायिक टीवी के जरिए आम इंसान को जोड़ने की कोशिश की थी लेकिन इसे लंबे समय तक जारी नहीं रखा जा सका। 1983 में पी सी जोशी ने भारतीय ब्राडकास्टिंग रिपोर्ट में कहा था कि हम दूरदर्शन को गरीब तबके तक पहुंचाना चाहते हैं। दूरदर्शन ने इस कर्तव्य को निभाने के प्रयास भी किए लेकिन सेटेलाइट टेलीविजन के आगमन के बाद परिस्थितियां काफी तेजी से बदल गईं। 90 का दशक आते-आते भारत में निजी चैनलों ने करवट लेनी शुरु की और इस तरह भारत विकास की एक नई यात्रा की तरफ बढ़ने लगा। जी न्यूज ने जब पहली बार समाचारों का प्रसारण किया तो इन समाचारों का कलेवर उन समाचारों से अलग हटकर था जिन्हें देखने के भारतीय दर्शक आदी थे। नए अंदाज के साथ आए समाचारों ने दर्शकों को तुरंत अपनी तरफ खींच लिया और दर्शक की इसी नब्ज को पकड़ कर टीवी की तारों के साथ नए प्रयोगों का दौर भी पनपने लगा। वैसे भी न्यूज ट्रैक की वजह से भारतीयों को सनसनीखेज खबरों का कुछ अंदाजा तो हो ही गया था। 80 के दशक में जब खबरों की भूख बढ़ने लगी थी और खबरों की कमी थी, तब इंडिया टुडे समूह के निर्देशन में न्यूज ट्रैक का प्रयोग अभूतपूर्व रहा था। न्यूज ट्रैक रोमांच और कौतहूल से भरी कहानियां को वीएचएस में रिकार्ड करके बाजार में भेज देता था और यह टेपें हाथों-हाथ बिक जाया करती थीं। भारतीयों ने अपने घरों में बैठकर टीवी पर इस तरह की खबरी कहानियां पहली बार देखी थीं और इसका स्वाद उन्हें पसंद भी आया था। दरअसल तब तक भारतीय दूरदर्शन देख रहे थे। इसलिए टीवी का बाजार यहां पर पहले से ही मौजूद था लेकिन यह बाजार बेहतर मापदंडों की कोई जानकारी नहीं रखता था क्योंकि उसका परिचय किसी भी तरह की प्रतिस्पर्द्धा से हुआ ही नहीं था। नए चैनलों के लिए यह एक सनहरा अवसर था क्योंकि यहां दर्शक बहुतायत में थे और विविधता नदारद थी। इसलिए जरा सी मेहनत, थोड़ा सा रिसर्च और कुछ अलग दिखाने का जोखिम लेने की हिम्मत भारतीय टीवी में एक नया इतिहास रचने की बेमिसाल क्षमता रखती थी। जाहिर है इस कोशिश की पृष्ठभूमि में मुनाफे की सोच तो हावी थी ही और जब मुनाफा और प्रतिस्पर्द्धा- दोनों ही बढ़ने लगा तो नएपन की तलाश भी होने लगी। दर्शक को हर समय नया मसाला देने और उसके रिमोट को अपने चैनल पर ही रोके रखने के लिए समाचार और प्रोग्रामिंग के विभिन्न तत्वों पर ध्यान दिया गया जिनमें पहले पहल राजनीति और फिर बाद में अपराध भी प्रमुख हो गया। वर्ष 2000 के आते-आते चैनल मालिक यह जान गए कि अकेले राजनीति के बूते चैनलनुमा दुकान को ज्यादा दिनों तक टिका कर नहीं रखा जा सकता। अब दर्शक को खबर में भी मनोरंजन और कौतुहल की तलाश है और इस चाह को पूरा करने के लिए वह हर रोज सिनेमा जाने से बेहतर यही समझता है कि टीवी ही उसे यह खुराक परोसे। चैनल मालिक भी जान गए कि अपराध को सबसे ऊंचे दाम पर बेचा जा सकता है और इसके चलते मुनाफे को तुरंत कैश भी किया जा सकता है। अपराध में रहस्य, रोमांच, राजनीति, जिज्ञासा, सेक्स और मनोरंजन- सब कुछ है और सबसे बड़ी बात यह है कि इसके लिए न तो 3 घंटे खर्च करने की जरूरत पड़ती है और न ही सिनेमा घर जाने की। वास्तविक जीवन की फिल्मी कहानी को सिर्फ एक या डेढ़ मिनट में सुना जा सकता है और फिर ज्यादातर चैनलों पर उनका रिपीट टेलीकॉस्ट भी देखा जा सकता है। भारत में अपराध रिपोर्टिंग के फैलाव का यही सार है। भारत में निजी चैनल और बदलाव की लहर भारत में 90 के दशक तक टीवी बचपन में था। वह अपनी समझ को विकसित, परिष्कृत और परिभाषित करने की कोशिश में जुटा था। खबर के नाम पर वह वही परोस रहा था जो सरकारी ताने-बाने की निर्धारित परिपाटी के अनुरुप था। इसके आगे की सोच उसके पास नहीं थी लेकिन संसाधन बहुतायत में थे। इसलिए टीवी तब रुखी-सूखी जानकारी का स्त्रोत तो था लेकिन एक स्तर के बाद तमाम जानाकरियां ठिठकी हुई ही दिखाई देती थीं। यह धीमी रफ्तार 90 के शुरुआती दशक तक जारी रही। इमरजेंसी की तलवार के हटने के बाद भी मीडिया की रफ्तार एक लंबे समय तक रुकी-सी ही दिखाई दी। 1977 में लोकसभा चुनाव की घोषणा के बाद जयप्रकाश नारायण ने दिल्ली में रैली का एलान किया तो दूरदर्शन को सरकार की तरफ से कथित तौर पर यह निर्देश मिला कि रैली का कवरेज कुछ ऐसा हो कि वह असफल दिखाई दे। इस मकसद को हासिल करने के लिए दूरदर्शन ने पूरजोर ताकत लगाई। दूरदर्शन के कैमरे रैली-स्थल पर उन्हीं जगहों पर शूट करते रहे जहां कम लोग दिखाई दे रहे थे। रात के प्रसारण में दूरदर्शन ने अपनी खबरों में रैली को असफल साबित कर दिया लेकिन उसकी पोल दूसरे दिन अखबारों ने खोल दी। रैली में लाखों लोग मौजूद थे और तकरीबन सभी अखबारों ने अपार जनसमूह के बीच जेपी को संबोधित करते हुए दिखाया था। तब अपराध नाम का एजेंडा शायद दूरदर्शन की सोच में कहीं था भी नहीं। तब कवरेज बहुत सोच-परख कर की जाती थी। इसके अपने नफा-नुकसान थे लेकिन पंजाब में जब आतंकवाद अपने चरम पर था, तब दूरदर्शन का बिना मसाले के खबर को दिखाना काफी हद तक फायदेमंद ही रहा। जिन्हें इसमें कोई शक न हो, वो उन परिस्थितियों को निजी चैनलों की ब्रेकिंग न्यूज करने की हड़बड़ाहट की कल्पना कर समझ सकते हैं। इसी तरह इंदिरा गांधी और फिर बाद में राजीव गांधी की हत्या जैसे तमाम संगीन और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी बड़ी घटनाओं को बेहद सावधानी से पेश किया गया। खबरों को इतना छाना गया कि खबरों के जानकार यह कहते सुने गए कि खबरें सिर्फ कुछ शॉट्स तक ही समेट कर रख दी गई और शाट्स भी ऐसे जिनकी परछाई तक विद्रूप न हो और जो सामाजिक या धार्मिक द्वेष या नकारात्मक विचारों की वजह न बनते हों। विवादास्पद और आतंक से जुड़ी खबरों को बहुत छान कर अक्सर या तो बिना शाट्स के ही बता दिया जाता या फिर ज्यादा से ज्यादा 10 से 15 सेंकेंड की तस्वीर दिखा कर ख़बर बता दी जाती। कोशिश रहती थी कि खबर सिर्फ एक खबर हो, आत्म-अभिव्यवक्ति का साधन नहीं। टीवी के पर्दे पर छोटे अपराध तो दिखते ही नहीं थे। ऐसी खबरें तो जैसे 'पंजाब केसरी' सरीखे अखबारों के जिम्मे थीं जो एक लंबे समय तक भारत में सबसे ज्यादा बिकने वाला अखबार बना रहा। इसी तरह एक समय में मनोहर कहानियां भी अपने इसी विशिष्ट कलेवर की वजह से एक अर्से तक भारतीय पत्रिकाओं की सरताज बनी रही थी। लेकिन सरकारी तंत्र के लिए इस तरह के प्रयोग करना अपने आप में एक बड़ी खबर थी। अति उत्साह में दूरदर्शन अपराध की तरफ झुका तो सही लेकिन एक सच यह भी है कि तब तमाम मसलों की कवरेज में कहीं कोई कसाव नहीं था। बेहतरीन तकनीक, भरपूर सरकारी प्रोत्साहन और धन से लबालब भरे संसाधनों के बावजूद सरकारी चैनल पर तो अक्सर गुणवत्ता दिखाई ही नहीं देती थी। इसी कमी को निजी हाथों ने लपका और टीवी के रंग-ढंग को ही बदल कर रख दिया। यहीं से टेलीविजन के विकास की असली कहानी की शुरुआत होती है। प्रतियोगिता ने टेलीविजन को पनपने का माहौल दिया है और इसे परिपक्वता देने में कुम्हार की भूमिका भी निभाई है। इसी स्वाद को जी टीवी ने समझा और भारतीय जमीन से खबरों का प्रसारण शुरु किया। पहले पहल जी टीवी ने हर रोज आधे घंटे के समाचारों का प्रसारण शुरु किया जिसमें राष्ट्रीय खबरों के साथ ही अतर्राष्ट्रीय खबरों को भी पूरा महत्व दिया गया। समाचारों को तेजी, कलात्मकता और तकनीकी स्तर पर आधुनिक ढंग से सजाने-संवारने की कोशिश की गई। आकर्षक सेट बनाए गए, भाषा को चुस्त किया गया, हिंग्लिश का प्रयोग करने की पहल हुई और नएपन की बयार के लिए तमाम खिड़कियों को खुला रखने की कोशिश की गई। इन्हीं दिनों दिल्ली में एक घटना हुई। टीवी पर अपराध रिपोर्टिंग यह घटना 1995 की है। एक रात नई दिल्ली के तंदूर रेस्तरां के पास से गुजरते हुए दिल्ली पुलिस के एक सिपाही ने आग की लपटों को बाहर तक आते हुए देखा। अंदर झांकने और बाद में पूछताछ करने के बाद यह खुलासा हुआ कि दिल्ली युवक कांग्रेस का एक युवा कार्यकर्ता अपने एक मित्र के साथ मिलकर अपनी पत्नी नैना साहनी की हत्या करने बाद उसके शरीर के टुकड़े तंदूर में डाल कर जला रहा था। यह अपनी तरह का अनूठा और वीभत्स अपराध था। जी ने जब इस घटना का वर्णन किया और तंदूर के शॉटस दिखाए तो दर्शक चौंक गया और वह आगे की कार्रवाई को जानने के लिए बेताब दिखने लगा। यह बेताबी राजनीतिक या आर्थिक समाचारों को जानने से कहीं ज्यादा थी और दर्शक आगे की खबर को नियमित तौर पर जानना भी चाहता था। इस तरह की कुछेक घटनाओं ने टीवी पर अपराध की कवरेज को प्रोत्साहित किया। बेशक इस घटना ने टीवी न्यूज में अपराध के प्रति लोगों की दिलचस्पी को एकदम करीब से समझने में मदद दी लेकिन दर्शक की नब्ज को पकड़ने में निजी चैनलों को भी काफी समय लगा। 90 के दशक में अक्सर वही अपराध कवर होता दिखता था जो प्रमुख हस्तियों से जुड़ा हुआ होता था। सामाजिक सरोकार और मानवीय संवेदनाओं से जुड़े आम जिंदगी के अपराध तब टीवी के पर्दे पर जगह हासिल नहीं कर पाते थे। विख्यात पत्रकार पी साईंनाथ के मुताबिक साल 1991 से लेकर 1996 तक मीडिया ने मोटापा घटाने से संबंधित इतनी खबरें दीं और विज्ञापन दिखाए कि उसमें यह तथ्य पूरी तरह से छिप गया कि तब 1000 मिलियन भारतीयों को हर रोज 74 ग्राम से भी कम खाना मिल पा रहा था। एक ऐसे वक्त में मीडिया मोटापा घटाने के लिए खुली तथाकथित दुकानों पर ऐसा केंद्रित हुआ कि वह उन लोगों को भूल गया जो अपना बचा-खुचा वजन बचाने की कोशिश कर रहे थे। इस माहौल में वही अपराध टीवी के पर्दे पर दिखाए जाने लगे जो कि ऊंची सोसायटी के होते थे या सनसनी की वजह बन सकते थे। चुनाव के समय भी अपराध को छानने की प्रक्रिया तेज हो जाती थी ताकि इसके राजनीति से जुड़े तमाम पहलुओं को आंका जा सके। जाहिर है कि ऐसे में अपराध की कवरेज ज्यादा मुश्किल और जोखम भरी थी और इसलिए अपराध रिपोर्ट करने में इच्छुक पत्रकार को खोजना अपराध की जानकारी रखने से ज्यादा मुश्किल माना जाता था। इसी कड़ी में 1995 में जी टीवी ने इंडियाज़ मोस्ट वांटेड नामक कार्यक्रम से एक नई शुरुआत की। इसके निर्माता सुहेल इलियासी ने इस कार्यक्रम की रुपरेखा लंदन में टीवी चैनलों पर नियमित रुप से प्रसारित होने वाले अपराध जगत से जुड़ी खबरों पर आधारित कार्यक्रमों को देख कर बनाई। यह कार्यक्रम अपने धमाकेदार अंदाज के कारण एकाएक सुर्खियों में आ गया। कार्यक्रम के हर नए एपिसोड में दर्शकों को पता चलता था कि जिस अपराधी का हुलिया और ब्यौरा सुहेल ने दिखाया था, वह अब सलाखों के पीछे है, तो वह टीवी की वाहवाही करने से नहीं चूकता था। यह बात यह है कि सुहेल की कार्यशैली हमेशा विवादों में रही। नए परिदृश्य में बदलाव का दौर 21वीं सदी के आगमन के साथ ही परिदृश्य भी बदलने लगा। एनडीटीवी, आज तक, स्टार न्यूज, सहारा जैसे 24 घंटे के कई न्यूज चैनल बाजार में उतर आए और इनमें से किसी के लिए भी न्यूज बुलेटिनों को चौबीसों घंटे भरा-पूरा और तरोताजा रखना आसान नहीं था। इसके अलावा अब दर्शक के सामने विकल्पों की कोई कमी नहीं थी। दर्शक किसी एक चैनल की कवरेज दो पल के लिए पसंद न आने पर वह दूसरे चैनल का रुख कर लेने के लिए स्वतंत्र था। दर्शक की इस आजादी, बेपरवाही और घोर प्रतियोगिता ने चैनलों के सामने कड़ी चुनौती खड़ी कर दी। ऐसे में दर्शक का मन टटोलने की असली मुहिम अब शुरु हुई। बहुत जल्द ही वह समझने लगा कि दर्शक को अगर फिल्मी मसाले जैसी खबरें परोसी जाएं तो उसे खुद से बांधे रखना ज्यादा आसान हो सकता है। इसी समझ के आधार पर हर चैनल नियमित तौर पर अपराध कवर करने लगा। फिर यह नियमितता डेढ़ मिनट की स्टोरी से आगे बढ़ कर आधे घंटे के कार्यक्रमों में तब्दील होती गई और हर चैनल ने अपराध रिपोर्टरों की एक भरी-पूरी फौज तैयार करनी शुरु कर दी जो हर गली-मोहल्ले की खबर पर नजर रखने के काम में जुट गई। चैनल यह समझ गए कि ऐसे कार्यक्रमों के लिए टीआरपी, विज्ञापन और दर्शक सभी आसानी से मिल जाते हैं। अब खबरों की तलाश और उन्हें दिखाने का तरीका भी बेहद तेजी से करवट बदलने लगा। वर्ष 2000 में मंकी मैन एक बड़ी खबर बना। एक छोटी सी खबर पर मीडिया ने हास्यास्पद तरीके से हंगामा खड़ा किया। खबर सिर्फ इतनी थी कि दिल्ली के पास स्थित गाजियाबाद के कुछ लोगों का यह कहना था कि एक अदृश्य शक्ति ने एक रात उन पर हमला किया था। एक स्थनीय अखबार में यह खबर छपी जिसे बाद में दिल्ली की एक-दो अखबारों ने भी छापा। हफ्ते भर में ही दिल्ली के विभिन्न इलाकों से ऐसी ही मिलती-जुलती खबरें मिलने लगीं। ज्यादातर घटनाओं की खबर ऐसी जगहों से आ रही थीं जो पिछड़े हुए इलाके थे। टीवी रिपोर्टरों ने खूब चाव से इस खबर को कवर किया। आज तक और एनडीटीवी ने दिखाया कि किस तरह से मोहल्ले के मोहल्ले रात भर जाग कर चौकीदारी कर रहे हैं ताकि वहां पर 'मंकी मैन' न आए। फिर मीडिया को कुछ ऐसे लोग भी मिलने लगे जिनका दावा था कि उन्होंने मंकी मैन को देखा है। ऐसे में टीवी पर एक से बढ़कर एक रोचक किस्से सुनाई देने लगे। हर शाम टीवी चैनल किसी बस्ती से लोगों की कहानी सुनाते जिसमें कोई दावा करता कि मंकी मैन चांद से आया है तो कोई तो दावा करता कि मंगल ग्रह से। कुछ लोग अपनी चोटों और खरोंचों के निशान भी टीवी पर दिखाते। टीवी चैनलों ने इस अवसर का पूरा फायदा उठाया। एक चैनल ने तो एनिमेशन के जरिए इस कथित मंकी मैन का चित्र ही बना डाला और टीवी पर बताया कि अपने स्प्रिंगनुमा पंजों से मंकी मैन एक साथ कई इमारतें फांद लेता है। फिर एक कहानी यह भी आई कि शायद इस मंकी मैन के पीछे पाकिस्तान का हाथ है। मंकी मैन एक, कहानियां अनेक और वह भी मानव रुचि के तमाम रसों से भरपूर! यह कहानी महीने भर तक चली और एकाएक खत्म भी हो गई। मीडिया दूसरी कहानियों में व्यस्त हो गया और मंकी मैन कहीं भीड़ में खो-सा गया। बाद में दिल्ली पुलिस की रिपोर्ट ने भी किसी अदृश्य प्राणी और खतरनाक शक्ति की मौजूदगी जैसी कहानियों की संभावनाओं को पूरी तरह से नकार दिया। तो फिर यह मंकी मैन था कौन। बाद में जो एक जानकारी सामने आई, वह और भी रोचक थी। जानकारी के मुताबिक मंकी मैन का सारा हंगामा निचली बस्तियों में हो रहा था जहां बिजली की भारी कमी रहती है। गर्मियों के दिन थे और एकाध जगह वास्तविक बंदर के हमले पर जब मीडिया को मजेदार कहानियां मिलने लगीं तो वह भी इसे बढ़ावा देकर इसमें रस लेने लगा। लोग भी देर रात पुलिस और मीडिया की गुहार लगाने लगे। नतीजतन रात भर बिजली रहने लगी और गर्मियां सुकूनमय हो गईं। माना जाता है कि इस सुकून की तलाश में ही मंकी मैन खूब फला-फूला और स्टोरी की तलाश में हड़बड़ाकर मीडिया का दर्शक ने भी अपनी बेहतरी के लिए इस्तेमाल किया। अपराध और आतंक लेकिन यह कहानी का एक छोटा-सा पक्ष है। बड़े परिप्रेक्ष्य में दिखाई देता है- करगिल। अपराधों की तलाश में भागते मीडिया के लिए 1999 में करगिल 'बड़े तोहफे' के रुप में सामने आया जिसे पकाना और भुनाना फायदेमंद था। मीडिया को एक्सक्लूजिव और ब्रेकिंग न्यूज की आदत भी तकरीबन इन्हीं दिनों पड़ी। एक युद्ध भारत-पाक सीमाओं पर करगिल में चल रहा था और दूसरा मीडिया के अंदर ही शुरु हो गया। कौन खबर को सबसे पहले, सबसे तेज, सबसे अलग देता है, इसकी होड़ सी लग गई। हर चैनल की हार-जीत का फैसला हर पल होने लगा। जनता हर बुलेटिन के आधार पर बेहतरीन चैनल का सर्टिफिकेट देने लगी। कुछ चैनलों ने अपनी कवरेज से यह साबित कर दिया कि प्यार और युद्ध में सब जायज है। इस बार भी मुहावरा तो वही रहा लेकिन मायने बदल गए। इस बार यह माना गया कि युद्ध के मैदान में एक्सक्लूजिव की दौड़ में बने रहने के लिए सब कुछ जायज है। यही वजह है कि माना जाता है कि एक भारतीय टीवी चैनल ने इस कदर गैर-जिम्मेदाराना रिपोर्टिंग की कि रिपोर्टर की वजह से चार भारतीय जवानों को अपनी जान गंवानी पड़ी। यह माना जाती है कि टीवी पत्रकार की रिपोर्टिंग से ही पाकिस्तानी सेना को इस बात का अंदाजा लगा कि एक खास बटालियन की तैनाती उस समय किस दिशा में थी! इसके बाद दो और बड़ी घटनाएं हुईं। 22 दिसंबर 2000 की रात को लश्कर ए तायबा के दो फियादीन आतंकवादी लाल किले के अंदर जा पहुंचे और उन्होंने राजपूताना राइफल्स की 7वीं बटालियन के सुरक्षा गार्डों पर हमला कर तीन को मार डाला। 17वीं सदी के इस ऐतिहासिक और सम्माननीय इमारत पर हमला होने से दुनियाभर की नजरें एकाएक भारतीय मीडिया पर टिक गईं। तमाम राजनीतिक रिपोर्टरों ने शायद तब पहली बार समझा कि भारतीय मीडिया पर अपनी पकड़ बनाने के लिए अकेले संसद भवन तक की पहुंच ही काफी नहीं है बल्कि अपराध की बारीकियों की समझ भी महत्वपूर्ण है। फिर 13 दिसंबर 2001 को कुछ पाकिस्तानी आतंकवादी ने संसद पर हमला कर दिया। यह दुनिया भर के इतिहास में एक अनूठी घटना थी। घटना भरी दोपहर में घटी। तब संसद सत्र चल रहा था कि अचानक गोलियों के चलने की आवाज आई। संसद सदस्यों और कर्मचारियों से लबालब भरे संसद भवन में उस समय हड़बड़ी मच गई। इसमें सबसे अहम बात यह रही कि उस समय संसद भवन के अंदर और बाहर- दोनों ही जगह पत्रकार मौजूद थे। इनमें तकरीबन सभी प्रमुख चैनलों के टीवी कैमरामैन शामिल थे। पाकिस्तान के 5 आतंकवादियों ने करीब घंटे भर तक संसद में गोलीबारी की। इसमें 9 सुरक्षाकर्मियों सहित 16 अन्य लोग घायल हो गए। अभी संसद में हंगामा चल ही रहा था कि मीडिया ने भी अपनी विजय पताका फहरा दी क्योंकि मीडिया इस सारे हंगामे को कैमरे में बांध लेने में सफल रहा। कुछ कैमरामैनों ने अपनी जान पर खेल कर आतंकवादियों का चेहरा, उनकी भाग-दौड़, सुरक्षाकर्मियों की जाबांजी और संसद भवन के गलियारे में समाया डर शूट किया। एक ऐसा शूट जो शायद मीडिया के इतिहास में हमेशा सुरक्षित रहेगा। संसद में हमले के दौरान ही संसद भवन के बाहर खड़े रिपोर्टरों ने लाइव फोनो और ओबी करने शुरु कर दिए। पूरा देश आतंक का मुफ्त, रोमांचक और लाइव टेलीकास्ट देखने के लिए आमंत्रित था। थोड़ी ही देर बाद नेताओं का हुजूम भी ओबी वैनों की तरफ आ कर हर चैनल को तकरीबन एक सा अनुभव सुनाने लगा। हाथ भर की दूरी पर एक-दूसरे के करीब खड़े टीवी चैनल उस वक्त खुद आतंकित दिखने लगे क्योंकि यह समय खुद को सर्वश्रेष्ठ साबित करने का था। टीवी पर गोलियों की आवाज बार-बार सुनाई गई। फिर रात में रिपोर्टर ही नहीं बल्कि कुछ चैनल ने तो कैमरामैनों के इंटरव्यू भी दिखाए। यह पत्रकारिता के एक अनोखे युग का सूत्रपात था। हड़बड़ाए हुए मीडिया ने ब्रेकिंग न्यूज की पताका को हर पल फहराया। इस 'सुअवसर' की वजह से इलेक्ट्रानिक मीडिया एक सुपर पावर के रुप में प्रतिष्ठित होने का दावा करता दिखाई देने लगा और फिर ब्रेकिंग न्यूज की परंपरा को और प्रोत्साहन मिलता भी दिखाई दिया लेकिन यहां यह भी गौरतलब है कि मीडिया ने अपनी हड़बड़ी में कई गलत ब्रेकिंग न्यूज़ को भी अंजाम दिया और कई बार आपत्तिजनक खबरों के प्रसारण की वजह से सवालों से भी घिरा दिखाई दिया। जाहिर है कि मीडिया की हड़बड़ी के अंजाम भी मिले-जुले रहे हैं और इलेक्ट्रानिक मीडिया की जल्दबाजी और शायद आसानी से मिलती दिखती शोहरत की वजह से भी प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के बीच बढ़ती दूरियां भी साफ दिखने लगी हैं। मीडिया ने कई बार न्यूज देने के साथ ही रिएल्टी टीवी बनाने की भी कोशिश की जिससे न्यूज की वास्तविक अपेक्षाओं से खिलवाड़ होता दिखाई देने लगा। इसका प्रदर्शन गुड़िया प्रकरण में भी हुआ। वर्ष 2004 में एक अजीबोगरीब घटना घटी। पाकिस्तान की जेल से 2 भारतीय कैदी रिहा किए गए। इनमें से एक, आरिफ़, के लौटते ही खबरों का बाजार गर्म हो गया। खबर यह थी कि आरिफ़ भारतीय सेना का एक जवान था और करगिल युद्ध के दौरान वह एकाएक गायब हो गया था। सेना ने उसे भगोड़ा तक घोषित कर दिया लेकिन अचानक खबर मिली कि वह तो पाकिस्तान में कैद था! अपने गांव लौटने पर उसने पाया कि उसकी पत्नी गुड़िया की दूसरी शादी हो चुकी है और वह 8 महीने की गर्भवती भी है। यहां यह भी गौरतलब है कि आरिफ़ जब लापता हुआ था, तब आरिफ़ और गुड़िया की शादी को सिर्फ 10 दिन हुए थे। अब वापसी पर आरिफ़ का कथित तौर पर मानना था कि गुड़िया को उसी के साथ रहना चाहिए क्योंकि शरियत के मुताबिक वह अभी भी पहले पति की ही विवाहिता थी। इस निहायत ही निजी मसले को मीडिया ने जमकर उछाला और भारतीय मीडिया के इतिहास में पहली बार जी न्यूज के स्टूडियो में लाइव पंचायत ही लगा दी गई। कई घंटे तक चली पंचायत के बाद यह फैसला किया गया कि गुड़िया आरिफ़ के साथ ही रहेगी। इस कहानी को परोसते समय मीडिया फैसला सुनाने का काम करता दिखा जो कि शायद मीडिया के कार्यक्षेत्र का हिस्सा नहीं है। लेकिन इस खबर का दूसरा पहलू और भी त्रासद था। खबर थी कि गुड़िया, आरिफ़ और उसके कुछेक रिश्तेदारों को जी टीवी के ही गेस्ट हाउस में काफी देर तक रखा गया ताकि कोई चैनल गुड़िया परिवार की तस्वीर तक न ले पाए। मीडिया की अंदरुनी छीना-झपटी की यह एक ऐसी मिसाल है जो मीडिया के अस्तिव पर गंभीर सवाल लगाने के लिए काफी है। यह एक ऐसी प्रवृति का परिचायक है जो घटनाओं को सनसनीखेज बनाकर अपराध की प्लेट पर परोस कर मुनाफे के साथ बेचना चाहती है। बदलते हुए माहौल के साथ मीडिया के राजनीतिक, सांस्कृतिक और भावनात्मक समीकरण भी तेजी से बदलते रहते हैं। अपने पंख फैलाने की इस कोशिश में मीडिया ने कई बार सनसनी फैलाने से भी परहेज नहीं किया है फिर चाहे वह गोधरा हो या कश्मीर। अमरीकी टेलीविजन ने 11 सितंबर की घटना की कवरेज के समय जिस समझदारी से प्रदर्शन किया था, वह सीखने में भारतीय मीडिया को शायद अभी काफी समय लगेगा। अमरीका की अपने जीवनकाल की इतनी बड़ी घटना को भी अमेरीकी मीडिया ने मसाले में भूनकर नंबर एक होने की कोशिश नहीं की। इसकी एक बड़ी मिसाल यह भी है कि घटना की तस्वीरों को बुलेटिन को गरमागरम बनाने के लिए इस्तेमाल नहीं किया गया लेकिन इस मिसाल से भारत सहित और कई देशों ने सबक नहीं लिया है। सितंबर 2004 में जब रुस के एक स्कूल पर हमलावरों ने हमला बोल दिया और 155 स्कूली बच्चों सहित करीब 320 लोगों को मार डाला तो खूनखराबे से भरे शॉट्स दिखाने में कोई परहेज़ नहीं किया गया। इसी तरह मीडिया ने कई बार अपराधियों को भी सुपर स्टार का दर्जा देने में भूमिका निभाई है। वह कभी चंदन तस्कर वीरप्पन को परम शक्तिशाली तस्कर के रुप में स्थापित करता दिखाई दिया तो कभी अपराधियों को पूरे सम्मान साथ राजनीति के गलियारों की धूप सेंकते बलशाली प्रतिद्वंदी के रुप में। जाहिर है- इस समय मीडिया का जो चेहरा हमारे सामने है, वह परिवर्तनशील है। उसमें इतनी लचक है कि वह पलक झपकते ही नए अवतार के रुप में अवतरित हो सकता है। नए युग में अपराध के अंदाज, मायने और तरीके बदल रहे हैं। साथ ही उनकी रोकथाम की गंभीर जरुरत भी बढ़ रही है। मीडिया चाहे तो इस प्रक्रिया में लगातार सार्थक भूमिका निभा सकता है। बेशक मीडिया ने अपराध की कवरेज के जरिए कई बार समाज की खोखली होती जड़ों को टटोला है लेकिन अब भी मीडिया को समाज के प्रति सकारात्मक रवैया रखने की नियमित आदत नहीं पड़ी है। अपराध की संयमित- संतुलित रिपोर्टिंग समाज में चिपक रही धूल की सफाई का कामगर उपकरण बन सकती है। यह कल्पना करना आसान हो सकता है लेकिन यह सपना साकार तभी होगा जब पत्रकार को शैक्षिक, व्यावहारिक और मानसिक प्रशिक्षण सुलभ हो सके। कुल मिलाकर बात प्रशिक्षण और सोच की ही है।