Dec 17, 2008

क्यों लोकप्रिय हो रहे हैं धार्मिक चैनल

राम और सीता की आरती उतारते दर्शक। वनवास गमन की घटना देखते ही गमगीन होते दर्शक और राम की हर जीत को देखने को बेकरार। खाली सड़कें, लोगों से लदे-फदे टीवी लगे कमरे। यह तस्वीरें उस दौर में आम थीं जब रामायण धारावाहिक दूरदर्शन पर प्रसारित होता था। अब रामायण के लिए पूरे हफ्ते के इंतजार की जरूरत नहीं और न ही शांति की तलाश में रविवार दर रविवार नए आश्रमों की खोज करने की। अब ये सब रिमोट में बंद हैं। भला हो उन चैनलों का जो आध्यात्म को चौबीसों घंटे परोसने लगे हैं। इन्हें देखने वाली जनता के लिए इससे बड़ा सौभाग्य और क्या होगा कि ईश्वर-भजन कभी भी सुनने को मिल जाए! मीडिया पर पैनी नजर रखने वाले विश्लेषकों के लिए यह शायद हैरानी की बात रही कि जब वे न्यूज मीडिया को राजनीति, अपराध, खेल और व्यापार के बदलते समीकरणों के हिसाब से भरने में लगे थे तो बाजार के दूसरे छोर में अध्यात्म लहर तेजी से बह गई। अभी 2005 की ही बात है जब एक नामी आध्यात्मिक चैनल ने बाबा रामदेव को अपने चैनल का अमिताभ बच्चन बताया था। जिस दौर में न्यूज मीडिया अपने हथियारों को पैना और खुद को सबसे तेज-स्मार्ट साबित करने में मशगूल रहा, उसी दौर में हौले-हौले एक नए अवतार का जन्म हुआ जिसका नाम था-आध्यात्म। 2005 में ही अमरीका की बेहद प्रतिष्ठित डिजिटल टेलीविजन सर्विस प्रोवाइडर- डायरेक्ट टीवी, इंक ने भारत के एक आध्यात्मिक चैनल को डायरेक्ट टीवी चैनल पर उपलब्ध कराने की बहुत धूमधाम से घोषणा की। इस मौके पर डायरेक्ट टीवी के उपाध्यक्ष का बयान था कि इस तरह के चैनल अमरीका में बसे लेकिन दक्षिण एशिया से किसी भी तरह का सरोकार रखने वाले लोगों को वहां की संस्कृति और समाज से जोड़े रखने के लिए सेतु का काम कर सकते हैं लेकिन तब कौन जानता था कि सात समंदर पार ही नहीं बल्कि पास के गली-मोहल्लों में चौपाल लगाए लोगों से लेकर पेज थ्री की थिरकती बालाओं का भी इन चैनलों पर अपार प्रेम उमड़ आएगा। आंकड़ों का खेल भी इन चैनलों के ऊपर चढ़ते ग्राफ को साबित करता है। टैम की ताजा रिपोर्ट कहती है कि 2004 की तुलना में 2005 में आध्यात्मिक चैनलों की दर्शक-संख्या में पांच गुना बढ़ोतरी हुई। म्यूजिक चैनलों की तरह आध्यात्मिक चैनलों के दर्शक राष्ट्रीय स्तर पर कम से कम एक प्रतिशत तो हैं ही। जहां तक विज्ञापनों का सवाल है तो अप्रैल 2005 से मार्च 2006 के बीच अकेले आस्था चैनल के विज्ञापनों में ही 75 प्रतिशत तक का इजाफा रिकार्ड हुआ। ज्यादातर आध्यात्मिक चैनलों के प्राइम टाइम(सुबह 4 से 9 बजे) स्लाट के विज्ञापनों की दर भी 200 रूपए प्रति 10 सेकेंड से बढ़ कर 600 रूपए तक आ पहुंची है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि इन्हें देखने वाले पके बालों और झड़े दांतों वाले ही हैं। शोध कहते हैं कि इनके 55 प्रतिशत दर्शकों की उम्र 35 पार है लेकिन बाकी का आयु वर्ग 15 से 24 का ही है। मजे की बात यह कि इन चैनलों को देखते हुए दर्शक बाकी चैनलों की तरह हड़बड़ाहट से भरे नहीं दिखते। मिसाल के तौर पर सबसे लोकप्रिय कार्यक्रमों में से एक राम कथा 4 घंटे लंबा कार्यक्रम है। जाहिर है कि यह अवधि बालीवुड की किसी फिल्म से भी ज्यादा है। इसके बावजूद बड़ी तादाद में एक समर्पित वर्ग टिककर इसे देखता-सराहता है। संकेत साफ हैं। बाजार का स्वाद, दशा और दिशा बदल रही है। धर्म और आध्यात्म टीआरपी की कतार में दिखने लगे हैं। लोगों की रूचियां बदली हैं और एक ही परिपाटी में पकाए जा रहे समाचारों, कार्यक्रमों और धारावाहिकों से जनता का मन ऊबने लगा है। जाहिर है कि न्यूज और व्यूज से घिरे मीडिया के लिए अध्यात्म की ये नई दुकानें एक अनोखी चुनौती लेकर सामने आई हैं। अभी कुछ साल पहले तक धर्म और आध्यात्म के बंधे-बंधाए मायने थे। फार्मूला आसान था- भजन-कीर्तन, माथे पर टीका और हाथ में कमंडल। उम्र के आखिरी स्टेशन पर आकर उस परमशक्ति को मन भर याद करने की पुरातनी परंपरा। कम से कम भारतीय युवा पीढ़ी के लिए तो धर्म इसी परिधि के आस-पास की चीज थी। लेकिन अब नई सदी में धर्म के तयशुदा मुहावरे पलट दिए गए हैं। अब धर्म आधुनिक हुआ है और उसके तौर-तरीके भी। 50 साल पहले भारत में जन्मे बुद्दू बक्से ने जब सुबह से लेकर शाम की दिनचर्या ही बदल डाली तो धर्म का भी अछूता रहना मुश्किल तो था ही। जिस तरह खान-पान सिर्फ दाल-चावल तक सीमित नहीं रह गया है, उसी तरह टेलीविजनी धर्म भी अपना अपना दायरा बढ़ा कर आस्था, संस्कार, साधना, जीवन,सत्संग, मिराकल नेट, अहिंसा, गाड टीवी, सुदर्शन चैनल, अम्मा, क्यूटीवी, ईटीसी खालसा जैसे कई नाम लेने लगा है। आध्यात्मिक चैनलों का दावा है कि इस समय ढाई करोड़ से ज्यादा आबादी इन्हें देखती है जो कि इस देश में केबल कनेक्शन वाले घरों का करीब आधा है। आस्था जैसे चैनल गंगोत्री से लेकर दक्षिण भारत तक धार्मिक यात्राओं को कवर कर रहे हैं तो आस्था अंताक्षरी जैसे कार्यक्रमों पर बात कर रहै है। संस्कार जैसे चैनल दावा कर रहे हैं कि उसकी दर्शक संख्या 1 करोड़ के आंकड़े को कब की पार कवर कर चुकी है। लक्स, ईमामी, अजंता समेत 43 ब्रांड उसके साथ भागेदारी कर रहे हैं। आस्था की किट्टी में 40 गुरूओं का जमावड़ा है। सबके अपने-अपने साज, अपने-अपने राग हैं और इसके चलते चैनल को मजे से रोजाना 18 घंटे की खुराक मिल जाती है जोकि कोई खेल नहीं। बाहरी प्रवचनों के अलावा अब यह चैनल अब इन-हाउस नए भजनों को बनाने-बजाने को खूब तरजीह देने लगा है। जागरण चैनल खुद को सामाजिक-आध्यात्मिक चैनल साबित करने की होड़ में है। इनके पास अयूर जैसे विज्ञापनदाता भी हैं और मसाले बनाने वाले भी। इनकी सूची में ओशो, श्री सत्यसाईं बाब, मुरारी बापू, गुरू मां और मृदुल कृष्णजी का नाम काफी ऊपर आता है। इनकी रूचि धार्मिक फिल्में दिखाने में भी है। 2003 से चल रहा गाड चैनल ईसाइयों से जुड़े कार्यक्रमों को अहमियत देता है। 2002 में शुरू किया गया मिराकल नेट ट्रनिटी ब्राडकास्टिंग नेटवर्क की उपज है। बेनी हिन और केनेथ कोपलैंड यहां खूब देखे-सुने जाते हैं। इनका मानना है कि सेहत और समृद्धि सभी का अधिकार हैं। बाइबल में विश्ववास रखने वाले यह प्रचारक वर्ड फेथ थियोलाजी में अटूट विश्वास रखते हैं। इनका मानना है कि आंतरिक विश्वास के जरिए ईश्वर से अपनी सभी इच्छाएं पूरी करवाई जा सकती हैं। ईसाई आध्यात्मिक जरूरत पर आधारित गुड न्यूज टीवी तमिलनाडु में खासा लोकप्रिय है। इसमें बच्चों के लिए भी आध्यात्मिक डोज है। ऐसा नहीं है कि यह चैनल धर्मगुरूओं के दायरे तक ही सीमित बल्कि अब इन चैनलों ने नए तरह के कार्यक्रम भी तैयार करने शुरू कर दिए हैं। यहां धार्मिक एनिमेशन से लेकर ध्याननगाने की विधियां, व्रत का खान-पान, सात्विक भोजन से लेकर शांत जीवन तक पर कार्यक्रम और डाक्यूमेंटरी देखी जा सकती हैं। और तो और यहां फिल्मी सितारों की भी कमी नहीं। इन चैनलों पर अब कुंभ मेले, गणेश चतुर्थी, नवरात्रे से लेकर गुरूबाणी और गरबे तक तरह-तरह के लाइव टेलीकास्ट की भरमार देखी जा सकती है। गौर की बात यह भी कि इन्हें देखने वाले चैनल की तकनीकी कमियों को आराम से नजरअंदाज कर देते हैं। यहां भक्ति सर्वोपरि रहती है, खामियां नहीं। ईटीवी मराठी जब अष्टविनायक दर्शन कराते हुए दर्शकों के नाम से अभिषेक करवाता है तो दर्शक उसमें झूम उठता है और घंटों बिना रिमोट बदले उनमें लीन रहते हैं। मामला यहीं नहीं सिमटता। एक टेलीकाम कंपनी मोबाइल फोन पर आध्यात्मिक चैनल शुरू करने जा रही है। इसके जरिए व्यस्त उपभोक्ता मोबाइलपर ही पूजा-अर्चना कर सकेंगें। इसमें हनुमान, गणेश, थिरूपति बालाजी से लेकर राम, लक्ष्मी, सरस्वती, ईसा मसीह, गुरू नानक और साईंबाबा तक सभी के संदेशों का समावेश होगा। इस हैंडसेट में हर भगवान के लिए अलग रंग औऱ अलग तस्वीर का प्रावधान होगा ताकि अपनी पसंद(या अपने काम के) भगवान की गूंज को डाउनलोड किया जा सके। यानी दिनभर भागते-भागते पूजा भी कीजिए और पुण्य भी कमाइए(पैसा कमाने का काम कंपनी पर छोड़ दीजिए। अब हाईटेक शादियों पर भी काम होने लगा है। टीवी पर ही अपनी कुंडली मिलवाइए और नक्षत्रों तक को फुसलाकर शादी करवा लीजिए।सबके पैकेज तैयार हैं। हर चैनल के पास अपनी तरकीबें हैं। एक चैनल ने एसएमएस के जरिए आशीर्वाद देने का चलन शुरू किया। किसी खास दिन की शुरूआत या शादी की बात करने से पहले आप अपने पसंदीदा गुरू से जानना चाहते हैं कि वह दिन कैसा है तो आप एक खास नंबर पर एसएमएस कीजिए और अपने प्रिय गुरू से फटाफट अपने दिन का रिपोर्ट कार्ड ले लीजिए। कई चैनल यह दावा करते हैं कि ऐसी तकनीकों वाले कार्यक्रमों के लिए उन्हें एक दिन में आम तौर पर 20,000 एसएमएस तक आते हैं। ऐसे कार्यक्रमों की धमक अब अमरीका और यूरोप में भी सुनाई देने लगी है। जी जागरण ने 2006 में राम वनवास पर जांह जांह राम चरण चलि जांहि एक डाक्यूमेंटी बनाई। 25 वैन रामायण धारावाहिक के राम अरूण गोविल के साथ देश के 11 शहरों में अभियान चला। लोगों से राम से जुड़े सवाल पूछे गए और प्रतियोगिता जीतने वालों के लिए ईनाम में दी गई- राम चरण पादुका जिसके बारे में दावा किया गया कि इसे अयोध्या की माटी से बनाया गया है। इसी तरह कुछ चैनलों में भजनों और देश भक्ति के गानों की अंताक्षरी भी चलती है। लेकिन साथ ही बदलाव भी होते रहते हैं। अब कुछ चैनल अपने को आर्ट आफ लिविंग से जोड़ रहे हैं तो कुछ अपने को आध्यात्मिक लाईफ स्टाइल चैनल कहलाने की तैयारी कर रहे हैं। अभी एक दशक पहले ही टेलीविजन पर जब आध्यात्म के प्रयोग की बात उठी थी तो लोगों ने इसे धार्मिक गायन से जोड़ कर एक बोरिंग अवधारणा मान लिया था। लेकिन एकाएक गुरूओं की ऐसी स्मार्ट फौज उपजी कि धर्म का बाजार एकाएक अत्याधुनिक दिखाई देने लगा। अब बहुत से घरों में बुजुर्ग खाली समय में विनोम-अनुलोम करते दिखते थे। पेज थ्री की बालाएं भी योग के नुस्खे आजमाने का कोई अवसर नहीं छोड़तीं। आध्यात्म के इस नए फंडे ने रोजगार के अवसर चौगुने कर दिए हैं। फेंगशुई से लेकर वास्तुशास्त्र, स्टोन, धातुओं और ग्रहों के नौसिखिए विशेषज्ञों की दुकानें भीचमकने लगी हैं।जनता के पास इनकी डिग्रीयां तक देखने का समय नहीं हैं। अंग्रेजी के वर्चस्व वाले बेसिर-पैर के संगीत बेचने वाले म्यूजिक स्टोरों में भी राक की टेप के साथ विराजमान दिखता है- योग का हिंदी और अंग्रेजी में अनुवादित टेप। यानी धर्म अब फास्टफूड की तरह जायका बदलने का साधन बनने लगा है। यह एक ऐसी लालीपाप है जिसे चूसने के फायदे ही फायदे हैं।मजे की बात यह कि अब हाई सोसायटी में भी काफी हद तक योग की बात होने लगी है। स्पा और मसाज सेंटरों की शौकीन किट्टीपार्टीनुमा रबड़-सी घिसी महिलाएं भी अब बाबा लोगों की हिंदी को समझ कर इसे थोड़ा-बहुत अपनाने लगी हैं। यानी इससे हिंदी का भी उद्धार हुआ है। लेकिन सोचने की बात यह है कि अचानक इसकी लहर चली कैसे और यह बाजार हिट क्यों हुआ? दरअसल मामला है- पैकेजिंग और सही जरूरत पर वार करने का। छरहरी काया के लिए हिंदुस्तानी बाजार में सब कुछ चलता है। दुबलापन दिलाने का दावा करने वाली कई असली-नकली कंपनियों के कारोबार के बीच यह योग महारथी समझ गए हैं कि यह आम भारतीय की सबसे कमजोर नब्ज है। फिर बारी आती है- दिल, दिमाग और खान-पान की चुस्ती की। योग के फारमूले वही रहे लेकिन टारगेट बना- दिल, मोटापी, मधुमेह या फिर रक्तचाप। फिर बाबाओंने अपना मेकओवर किया। वे संस्कृतनिष्ठ, गुस्सैलस नखरेवाले नहीं बल्कि स्मार्ट, अंग्रेजी समझने-बोलनेवाले,टीवी की जरूरत के अनुरूप तेजी से अपनी बात कह देने वाले हंसमुख और मदमस्त पैकेज के रूप में सामने आए तो बस मैदान पर फतह पाते ही गए। फास्टफूड की तरह जिंदगी के सुख भी आसानी से हासिल कर लेने की तरकीबें बताई गईं, खुलकर हंसना सिखाया गया, अपने शरीर से प्रेम के पाठ दोबारा याद कराए गए। सदियों से प्रमाणित योग को आसमान की बुलंदी छूते जरा देर न लगी। गुरू लोग समझ गए कि सास-बहू की चिकचिक से ऊब रही जनता के लिए आध्यात्म एक हिट नुस्खा है। भारत में आध्यात्मिक चैनलों ने 2001 में कदम रखा। एक तरफ मनोरंजन प्रधान या न्यूज प्रधान चैनलों को शुरू करने में जहां करीब 200 करोड़ रूपए की लागत आती है, आध्यात्मिक चैनल करीब 10 करोड़ की लागत पर ही शुरू किए जा सकते हैं। जाहिर है इन चैनलों को आकार देने में बड़ी पूंजी का निवेश नहीं करना पड़ता। यह एक ऐसी नई दुकान है जो कि टीवी न्यूज चैनलों पर भारी पड़नेलगी है(इसलिए याद कीजिए न्यूज चैनलों पर अबये गुरू खूब दिखाई देते हैं और दिखती है उनसे जुड़ी न्यूज भी लेकिन क्या आप कभी आध्यात्मिक चैनलोंमें न्यूज चैनलवालों का एक अंश भी देख पाते हैं? इससे साबित होता है-न्यूज वालों को इनकी जरूरत हो सकती है लेकिन इन्हें न्यूज वालों की शायद वैसी जरूरत नहीं। ) मिशन और कमीशन के बीच झूलते ये चैनल सामाजिक प्रतिष्ठा बटोरनेके साथ ही तिजोरी भरने में भफरूर सफल रहे हैं। इसलिए ये नए प्रयोगों से डरते नहीं, उन्हें तुरंत लपकते हैं। लेकिन यहां यह भी दिलचस्प है कि इन चैनलों पर छाने के लिए ज्यादातर धर्मगुरूओं को चैनल को अच्छी-खासी रकम देनी पड़ती है। शुरूआती दौरमें ही चैनल मालिकों ने दलील दी कि हमारे दर्शक धर्म की गूढ़ बातों के बीच में विज्ञापनों की भीड़ देखना पसंद नहीं करेंगें। धर्म में व्यावधान जितना न हो, उतना ही अच्छा। इसलिए विज्ञापनों की एक सीमा होगी। ऐसे में गुरूओं को अपनी फीस ।चुकानी होगी। इसलिए रातोंरात स्टार बने दिखते बहुतसे गुरूओं ने इस स्टारडम की मोटी दक्षिणा भी दी है और इस दक्षिणा में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। लेकिन इन गुरूओं की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं। तकरीबन हर गुरू के पास अपना जनसंपर्क अधिकारी है, वेबसाइट है और दुनियाभर में सक्रिय भक्त हैं जो उनके कार्यक्रम भी आयोजित करते रहते हैं। लेकिन नए जमाने के स्टार बने रहने के लिए इन्हें 24 x 7 कई पापड़ भी बेलने पड़ते हैं और बेहद तनाव में भी आध्यात्मिक मुस्कान को बिखेरना पड़ता है। सत्संग के अलावा इन्हें कई साइड बिजनेस करने पड़ते हैं। जैसे कि चुनावी सभाओं में पाया जाना, सत्ताधारियों के साथ जैसे-तैसे टीवी पर दिखना, बालीवुड वालों को अपने आश्रम में बुलवाकर मीडिया से ठीक-ठाक तरीके से फोटू खींचवाना वगैरह। लेकिन इस चक्कर में कभी-कभार ये साधुबाबा विवादों में भी घिर जाते हैं जैसे कि कर्नल पुरोहित(एटीएस मामला) का एक धर्मगुरू के आश्रम में आना माथे पर त्यौरियां चढ़ाने का काम करता है। इसी तरह दवाओं में इस्तेमाल होने वाली हड्डियों की कथित मौजूदगी को लेकर एक वामपंथी महिलानेता और एक आध्यात्मिक गुरू में तो जुबानी दंगल तक की नौबत आ जाती है। कुछ आश्रमों में बाल-श्रम को लेकर भी कई सवाल उठते रहे हैं। इसलिए यह मान लेना कि आध्यात्म की डोज देने वालों की कुटिया में राम-नाम ही सर्वौपरि है, शायद पूरी तरह से सही नहीं होगा। यहां भी तमाम तरह के डर हैं। झूठ-फरेब, दावों की रस्साकशी और गुरूओं की कंपीटीशन है। दूसरे से सफेद दिखने की कोशिश। पीआरएजेंसियां इन्हें नामी-गिरामी होने के हर्बल फार्मूले देती रहती हैं। पूरी कोशिश रहती है कि दूसरे स्टार इनकी छांव में बैठें और वो फोटू टीवी-अखबारों में ढंग से दिखें जरूर। चाहे शिल्पा हों या मल्लिका या हास्य बेचनेवाले कलाकार-गुरू हमेशा चर्चा में रहें, इस काम को मुस्तैदी से करने के लिए पीआर कर्मी दिन-रात जुगत भिड़ाते हैं। इन सबके बीच चैनल मालिक चाहे दावा करें कि अध्यात्म का बाजार प्रतियोगिता से अछूता है और वह सिर्फ भक्ति भाव से आध्यात्म परोसने का काम कर रहे हैं, हजम नहीं हो सकता। सच यही है कि तिजोरी भरने की जल्दी में वे भी हैं क्योंकि अध्यात्म के कथित बाजार की प्रतियोगिता ही निराली है। शुरूआती दिनों में औसतन 20,000 रूपए से शुरू हुआ यह व्यवसाय अब पहली सीढ़ी पर ही ढाई लाख की मांग करता है।एक चैनल का हाल तो यह है कि वह अभी हाल के दिनों तक चैनल के मुखिया के घर से ही चलता था और मालिक अकेला ही पीएन से लेकर जीएम तक का सारा काम करता था। लिहाजा कई चैनलों में एक-दो कमरे के दफ्तर औऱ सीमित संसाधनों से ही जनता को प्रभु-दर्शन करवा दिया जाता है। जो भी हो, अध्यात्म वेव उफान पर है। इन चैनलों का टारगेट पूरी दुनिया है। प्रवासी भारतीय इनमें अपनी माटी की महक खोजते हैं। 33 करोड़ देवी-देवताओं के इस देश में बाबा रामदेव, आसाराम बापू, सुखबोधानंद महाराज, श्री श्री रविशंकर और सुधांशु महाराज नए अवतार बन गए हैं। योग की लहर ने हर धर्म और तबके को छूकर राष्ट्रीय एकता में भी योगदान दिया है। इनकी बदौलत न्यूज चैनलों ने भी अब भक्ति भाव के चैनलों को विशेष तवज्जो देनी शुरू कर दी है। वे समझ गए हैं चुनावों-धमाकों-अपराधों के इस देश में बाकी सब भले ही फीका पड़ जाए, अध्यात्म की भूख कभी फीकी नहीं पडे़गी। (यह लेख 17 दिसंबर, 2008 को अमर उजाला में प्रकाशित हुआ)

Dec 16, 2008

रेडियो की रफ्तार

खबर है कि देश में इस समय 38 सामुदायिक रेडियो सक्रिय हैं। इनमें से सिर्फ दो को गैर-सरकारी संस्थाएं चलाते हैं जबकि बाकी का लाइसेंस शैक्षिक संस्थाओं को दिया गया है। इस साल 30 नवंबर तक नए सामुदायिक रेडियो खोलने के लिए सूचना और प्रसारण मंत्रालय तक 297 आवेदन आ चुके हैं जिनमें से 105 शैक्षिक संस्थाएं हैं और 51 कृषि विश्वविद्यालय। यह आंकड़ा खुशी की एक वजह लगता है। खुशी इसलिए कि अब भारत में भी सामुदायिक रेडियो की उपयोगिता को समझने की धीमी शुरूआत होने लगी है लेकिन साथ ही यह भी साफ है कि टीवी और प्रिंट के उत्साहवर्धन माहौल वाले देश में रेडियो की रफ्तार को लेकर गंभीरता का माहौल अभी भी पनप नहीं सका है। यह ताज्जुब की बात ही है कि संचार के तमाम बेहद लोकप्रिय साधनों में रेडियो की पैदाइश काफी पहले हुई और विकास काफी कम। रेडियो की पहचान हाल के सालों में जो बनी भी, वह कमर्शियल रेडियो के तौर पर ज्यादा दिखी जिसका काम मनोरंजन देना था, अक्सर बहुत गंभीर खुराक देना नहीं। पर एक सच यह भी है कि टीवी चैनलों की भीड़ ने जिस संवेदनहीन रिपोर्टिंग को बढ़ावा दिया, उसमें जनसरोकार के मुद्दे आम तौर पर सबसे पिछड़े ही दिखाई दिए हैं। शायद यही वजह है कि छोटे से इलाके में अपनी छोटी-छोटी दिक्कतों को आवाज देने के लिए सामुदायिक रेडियो की ताकत ने बहुतों को लुभाया और प्रेरणा दी। इस व्यवस्था से उत्साहित लोगों को इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि सामुदायिक रेडियो का दायरा बेहद छोटा होता है। कहीं 20 किलोमीटर तो कहीं 50। इस रेडियो को चलाने और इससे फायदा पाने वाले भी बेहद आम और स्थानीय होते हैं और यहां परोसी जाने वाली सामग्री भी उन्हीं के इस्तेमाल की होती है। ये लोग जानने लगे हैं कि इस रेडियो की ताकत असीम है क्योंकि इसका संचालक, कार्यकर्ता और उपभोक्ता वह वर्ग है जो इस देश की चुनाव प्रक्रिया में सबसे महती भूमिका निभाता है। दरअसल भारत में सामुदायिक रेडियो की लहर 90 के दशक में आई। 1995 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि 'रेडियो तरंगें जनता की संपत्ति हैं।' यह एक शुभ समाचार था लेकिन शुरूआती दौर में सिर्फ शैक्षिक स्तर पर ही ऐसे स्टेशनों को खोलने की इजाजत दी गई। इस दिशा में चेन्नई स्थित अन्ना एफएम पहला कैंपस सामुदायिक रेडियो बना जिसे आज भी एजुकेशन एंड मल्टीमीडिया रीसर्च सेंटर चलाता है और इसके तमाम कार्यक्रमों को अन्ना विश्वविद्यालय के छात्र ही तैयार करते हैं। लेकिन परिस्थितियों में तेजी से बदलाव नवंबर 2006 से आना शुरू हुआ जब भारत सरकार ने एक नई नीति के तहत गैर-सरकारी संस्थानों और दूसरी सामाजिक संस्थाओं को भी सामुदायिक रेडियो शुरू करने की इजाजत दे दी। नई नीति के तहत कोई व्यक्ति विशेष या फिर आपराधिक या राजनीतिक पृष्ठभूमि की संस्थाओं के अलावा कोई भी सामाजिक सरोकारों से जुड़ी संस्था सामुदायिक रेडियो के लिए आवेदन दे सकती है लेकिन चूंकि ऐसे रेडियो स्टेशनों के लिए केंद्र के स्तर से फंड नहीं मिल पाता और इनके लिए फंड जुटाने को लेकर कई कडे नियम भी हैं, ऐसे में सामुदायिक रेडियो के लिए लाइसेंस पाना भले ही आसान हो लेकिन उसे लंबे समय तक चला पाना किसी परीक्षा से कम नहीं। वैसे भी इसका लाइसेंस ऐसी संस्थाओं को ही मिल सकता है जो कम से कम तीन साल पहले रजिस्टर हुई हों और जिनका सामुदायिक सेवा का ' प्रामाणित ट्रैक रिकार्ड ' रहा हो। पर गौरतलब है कि लाइसेंस मिलने के बाद भी दिक्कतें कम नहीं होतीं। 12 किलोमीटर के दायरे की सीमा तक में बंधे सामुदायिक रेडियो के साथ यह शर्त भी जुड़ी होती है कि उसके करीब 50 प्रतिशत कार्यक्रमों में स्थानीयता हो और जहां तक संभव हो, वे स्थानीय भाषा में हों। एक घंटे में 5 मिनट के विज्ञापनों की छूट तो है लेकिन स्पांसर्ड (प्रोयोजित) प्रोग्रामों की अनुमति नहीं है( वे केंद्र या राज्य द्वारा प्रायोजित हों तो बात अलग है।) दरअसल सामुदायिक रेडियो पर सबसे ज्यादा बातें सुनामी के समय हुईं। उस समय जबकि प्रसारण के तमाम हथियार ढीले पड़ गए थे, सामुदायिक रेडियो के जरिए हो रही उद्घघोषणाओं के चलते ही अंडमान निकोबार द्वीप समूह में करीब 14,000 लापता लोगों को आपस में जोड़ा जा सका था। यह भी कम हैरानी की बात नहीं कि दुनिया के कई देशों में सामुदायिक रेडियो काफी पहले से ही सक्रिय रहा है। अकेले लेटिन अमरीका में ही इस समय 2000 से ज्यादा सामुदायिक रेडियो सक्रिय हैं और अमरीका में 2500 से ज्यादा गैर व्यावसायिक रेडियो स्टेशन अपनी सेवाएं दे रहे हैं। कनाडा में भी 70 के दशक में सामुदायिक रेडियो की शुरूआत हो गई थी। 50 के दशक में कनाडा ने फार्म पर आधारित रेडियो कार्यक्रमों को प्रसारित कर जोरदार सफलता हासिल की थी। तब से अब तक कनाडा ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा है। इसी तरह श्रीलंका, नेपाल (नेपाल में 1997 में रेडियो सागरमाथा की शुरूआत हुई थी) और बांग्लादेश जैसे छोटे देश भी एक अर्से पहले ही इस माध्यम की शक्ति को पहचान कर काफी आगे बढ़ चुके हैं लेकिन भारत को सीख लेने में काफी समय लगा। सामुदायिक रेडियो की एक खासियत यह है कि इसमें कार्यक्रम तैयार करते समय स्थानीय भाषा या रूचियों के साथ समझौते नहीं किए जाते। इनमें वह सब शामिल करने की कोशिश की जाती है जो स्थानीय लोगों के विकास और सेहमतमंद मनोरंजन के लिए जरूरी है। देश के कई छोटे-छोटे गांवों में चल रहे ऐसे अभियान भारतीयों का संचार के इस नए चेहरे से साक्षात्कार करा रहे हैं। आम तौर पर तकनीकी उपकरणों के नाम पर इन गांवों के पास एक टेप रिकार्डर और माइक से ज्यादा कुछ नहीं होता। यह अपने रिपोर्टरों की टीम खुद बनाते हैं, रनडाउन( स्टोरीज का क्रम) तैयार करते हैं और प्रसारण से जुड़े फैसले लेते हैं। यानी निर्माण के लिए कच्चे माल को तैयार करने से लकेर इन्हें तकनीकी रूप से अंतिम आकार देने तक-हल कड़ी में संबद्ध गांववालों की सीधी भूमिका और पहरेदारी बनी रहती है। ऐसी टोलियों में भले ही निरक्षरों की तादाद काफी ज्यादा हो लेकिन कुछ नया सीखने से इन्हें परहेज नहीं। इस तरह के प्रयोगों ने भारत के कई गांवों की जिंदगी का रूख ही जैसे बदल डाला है। बेशक भारत में सामुदायिक रेडियो का भविष्य सुनहरा है लेकिन स्थाई सफलता के लिए जरूरी होगा कि सामुदायिक रेडियो जैसे विकास के वाहनों के साथ ऐसे लोगों को जोड़ा जाए जो इस तरह की कोशिशों का हिस्सा बनने की इच्छा रखते हों क्योंकि किसी भी बड़े सपने के लिए तकनीकी और आर्थिक जरूरतें भले ही बाहर से बटोरी जा सकती हैं लेकिन आंतरिक ऊर्जा को तो खुद ही पनपाना होगा। इसके अलावा भारत में भी वर्ल्ड एसोसिएशन आफ कम्यूनिटी रेडियो ब्राडकास्टर्स जैसी संस्थाओं के अनुभवों को आत्मसात करने की कोशिशें होनी चाहिए। इसकी स्थापना 1983 में हुई थी और 110 देशों के 3000 देश इसके सदस्य बन चुके हैं। इस संस्था का एक मुख्य मकसद कम्यूनिटी रेडियो के प्रोत्साहन के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जमीन तैयार करना है। लेकिन इन सबसे ज्यादा जरूरी होगा सरकारी और सामाजिक सोच को बदलना। जरा सोचिए। इस देश में चौबीसों घंटे बजनेवाले चैनलों को कभी भी, कहीं भी औऱ कुछ भी कहने की अनकही छूट दे दी गई और समाचारों का आकाश उनके लिए खोल दिया गया है लेकिन एक ऐसा माध्यम जो पैसे के खेल से परे है, वहां आज भी न्यूज के संसार को खोलने में सरकार को डर लगता है। उद्दंड़ता पर उतर आए मीडिया को जन्म देने के बाद अब सरकार एक बच्चे को फर वाला खिलौना देने में भी घबराती है। वैसे भी सामुदायिक रेडियो फैशनेबल नहीं है, न ही धन-उगाही का साधन। इसलिए इस पर बड़ी चर्चाएं नहीं होतीं और न ही इन पर ज्यादा लिखा जाता है। अगर सोच की खिड़कियां कुछ खुल जाएं और इनके लिए माहौल बनाया जाए तो सनसनी फैलाते मीडिया से परे विकास का एक नया संसार सजाया जा सकता है। इसे फिलहाल तो एक सपना ही मीनिए। (यह लेख 16 दिसंबर, 2008 को जनसत्ता में प्रकाशित हुआ)

मुंबई कांड-जाग गया हिंदुस्तान

मुंबई के बहाने एकजुटता का मौसम शुरू हो गया है। संसद में आवाज उठी है कि हमलावरों ने किसी का धर्म देख कर उसे नहीं मारा। हमने इससे पहले भी आतंकवाद को कई बार सहा है लेकिन इस बार यह बताया जाना जरूरी हो गया है कि हम सब एक हैं।

यह शाबाशी की बात है। शाहरूख खान भी जब यह कहते हैं कि हमलावर भले ही मुसलमान थे लेकिन वे इस्लाम नहीं जानते थे, तो वे भी शायद भारतीयता के उसी जज्बे को जगाने की कोशिश करते हैं। शाबाश इंडिया।

लेकिन इस शाबाशी के एक बड़े हकदार हैं – वे दो परिवार जिन्होंने हमले के बाद यह संदेश को दिया कि चले जाइए आप हमारे घर से। नहीं चाहिए हमें आपकी हमदर्दी, नहीं चाहते हम आपकी सांत्वना का कोई बाउंस हुआ चैक। इस सच ने बहुत दिनों बाद दिल को सुकून दिया। सुकन यह सोच कर मिला कि आखिरकार जाग गया हिंदुस्तान क्योंकि सच को कहने के लिए हिम्मत का होना जरूरी है। हिम्मत चाहिए यह कहने की कि राजनीति की गद्दारी हमें समझ में आ रही है, इसलिए अब हमें आपकी कोई जरूरत नहीं।

मुंबई के बहाने इस बार जनता ने बहुत कुछ देखा। इस बार एक साथ ऐसी कई चीजें देखीं जो अब तक टुकड़ों में नसीब होती थीं। जनता ने देखा कि सबसे बड़ा मूर्ख वर्ग भी वही है और अब सबसे निर्णायक भी। पहले बात राजनीति की। आतंकवादी हमला हुआ और ताबड़तोड़ शुरू हुई राजनीति। देश के नाकाबिल गृह मंत्री को अपने पद से हटाने के लिए सरकार ने लंबा मौन साधा। जब कुछ जानें गईं, दबाव बढ़ा तो दस जनपथ जागा और देश के सबसे महत्वपूर्ण पद पर आसीन मंत्री को किसी तरह विदाई दी गई। लेकिन क्या यह सब पहले नहीं किया जा सकता था?

फिर आए बयान। विलासराव देशमुख कह देते हैं-बड़े-बड़े शहरों में छोटी-छोटी घटनाएं हो ही जाया करती हैं। वे बोलते कुछ इस अंदाज में हैं कि मानो खेल-खेल में बच्चों के महज दो-चार खिलौने ही टूटे हों। ऐसा नहीं है कि अपने इस बयान के बाद उन्हें कोई शर्म आ गई हो। इसके बाद वे रामगोपाल वर्मा और अपने बेटे रीतेश देशमुख के साथ मौके का जायजा लेने जाते हैं। यह सब कुछ ऐसे अंदाज में कि मानो रात के खाने के बाद आइसक्रीम खाने निकले हों। बेटे और एक फिल्म निर्माता को इसलिए साथ ले गए कि देखो अभी जो लाइव देख रहे थे, उस नजारे को वीआईपी घेरे में अपनी आंखों से देखो और फिर इस पर हारर या फिर कामेडी जैसी कोई भी फिल्म चट-पट बना डालो। धन्य हैं महाराज।

फिर मुख्तार अब्बास नकवी साहब। वे सीधे औरतों की लिप्स्टिक पर वार करते हैं। मजा देखिए। हाथों में दर्जनों चूड़ियां पहन कर बयान बहादुर बनने वाले हमारे राजनीतिक दामादों को जब कोई उपमा नहीं मिलती तो वे सीधे औरत को पकड़ते हैं बिना यह सोचे कि लिप्स्टिक लगाने वाली महिलाएं उन पुरूषों से लाख दर्जे बेहतर हैं जिनमें मर्दानगी कभी पैदी हुई ही नहीं।

लेकिन इन सबके बीच मीडिया ने भी कम करतब नहीं किए। हमारी अपनी बिरादरी के कई जांबाजों ने दुश्मन की भरपूर मदद की। उनका मार्गदर्शन किया कि हेमंत करकरे कहां-कहां जा रहे हैं। ताज के किस फ्लोर पर कौन-कौन फंसा है। एनएसजी कमांडो कहां से आ रहे हैं। यहां तक कि आतंकवादियों के लाइव फोन भी टीवी पर दिखाए गए ताकि आतंकवादियों का हौसला बढ़े। कुल मिलाकर कुछ चैनलों ने भारत की बजाय पाकिस्तान की भरपूर मदद की।

इस दहशत की एक-एक किरचन को भोगा जनता ने और समझा दर्द में तार-तार होना। जनता ने देखा कि जब जरूरत पड़ी तो आग में न नेता उतरे न मीडिया (और दोनों ही जिस हद तक भी उतरे, उसके पीछे उनका अपना स्वार्थ था)। यहां देशभक्ति की भावना सर्वोपरि नहीं थी। यहां ऊपर था-अपना मुनाफा। खुद का टीवी के परदे पर चमकना, कुछ एक्सक्लूयजिव कर जाना।

अब जब सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने हर बार की तरह कुछ चैनलों के हाथों में नाटक भरे नोटिस थमा दिए हैं और केंद्र सरकार ने हल्की-फुल्की सरकारी कवायदें कर दी हैं, एक बात जो किसी के जहन में नहीं आ रही वह यह है कि अब इन पर विश्वास करेगा कौन? वे यह भी नहीं समझ पा रहे कि कविता करकरे जब एक नरेंद्र मोदी से एक करोड़ का चैक लेने से इंकार कर देती है तो उसका क्या मतलब होता है?

बहरहाल जनता का विश्वास अब कमांडो पर है। वही कमांडो जिस पर केरल के मुख्यमंत्री ने कहा कि अगर वो शहीद न होता तो कोई कुत्ता भी वहां न जाता। मुख्यमंत्री जी भूल गए कि कुत्ता मंत्रियों से ज्यादा वफादार होता है। वे वहां जाएं न जाएं, वहां कुत्ते भी जाएंगे और आम जनता भी क्योंकि आखिरकार यही मायने रखते हैं।

तो देश के हुक्मरानों, अब यह जान लीजिए कि सिर्फ उन्नीकृष्णन ने ही अपने घर का दरवाजा आपके मुंह पर नहीं मारा है, यह तमाचा तो अब जनता भी आपके चेहरे पर चिपका चुकी। अब चिपके रहिए अपनी कुर्सी से और बनिए बयान बहादुर। हिंदुस्तान जीता है, जीतेगा –लेकिन आप लोगों की बदौलत नहीं, अपनी बदौलत।

(यह लेख 15 दिसंबर, 2008 को राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित हुआ)

Dec 14, 2008

मुंबई के बाद - जाएं तो जाएं कहां

दिल्ली का लवर्स पैराडाइज यानी नेहरू पार्क। शाम के 6 बजे हैं। झुरमुटों के आस-पास कई युगल दिखते हैं। कोई किसी की गोद में लेटा, कोई प्रेमिका की आंखों की भाषा को बांचता तो कोई भविष्य और वर्तमान के झूले में झूलता। सबके कुछ सपने हैं। लेकिन डर एक जैसा। कहीं पुलिस वाला या चौकीदार न देख ले। अपनी-अपनी हैसियत के हिसाब से संकट से निपटने के लिए जेब के कोने एक पुराना नोट भी छिपा पड़ा है।

इस तस्वीर के साथ साल न भी बताया जाए तो कोई फर्क नहीं पडे़गा क्योंकि सालों से तस्वीर में कोई बड़ा फर्क नहीं आया है। बस नोट का आकार थोड़ा बड़ा हो गया है। मुंबई हादसे के बाद पार्क में आकर प्यार के गोते लगाने वालों की जिंदगी उसी रफ्तार से कायम है। वही किस्से-वही उलहाने-वही उत्साह-वही मीठा सा प्यार।

इस पार्क के आस-पास के डिप्लोमैटिक औरब्यूरोक्रैटिक इलाके में गाड़ियों में सन-शेड से छिपाए चेहरों में वही प्रेम-रस और पहचाने जाने की आशंका है। गाड़ियों में घूमते ये मध्यमवर्गीय जोड़े कभी समाज के पारिभाषित दायरे में हैं और कभी उसके बाहर।

नजदीक ही पांच सितारा ताज से लेकर कनाट प्लेस तक बिछे पांच सितारा होटलों में जानेवालों में बहुत कुछ थम-सा गया है। इस पर अब तक किसी ने गौर ही नहीं किया।

दरअसल प्यार-मोहब्बत करने वालों के कई वर्ग और स्तर हैं। प्रेम हो जाना एक बात है लेकिन प्रेम को सींचने के लिए तो चाहिए ही समय,जगह और पैसा - बड़ा या छोटा।

तो आम तौर पर स्तर तीन हैं। एक, पार्क में जाकर कोनों में छिपकर चांद-सितारों को तोड़ने की बात करने वालों का। दूसरा, कार में बैठकर स्टीयरिंग की छांव और ब्रेकनुमा कबाब में हड्डी के बीच सिमट कर प्रेम के इजहार करने वालों का और तीसरा, पांच सितारा होटलों में जाकर शामें गुजारने का।

मुंबई हादसे का पहली श्रेणी पर कोई असर नहीं पड़ा है। वे पहले भी जिन पार्कों में पाए जाते थे, आगे भी वहीं पाए जाएंगे। सर्दी में शॉल की ओट और गर्मी में दुपट्टे की नरमाहट उन्हें सुख देगी। पास से गुजरता एक रूपए की चाय और 10 रूपए की कोल्ड ड्रिंक देने वाला जब उन्हें कई दिन वहीं देखता रहेगा और समझने लगेगा कि ये भी सच्चे आशिकों की श्रेणी वाले हैं, तो आते-जाते कान में फुसफुसा कर बता भी देगा कि चौकीदार कब वहां आ सकता है और कहां दिखा था उसे कोई पुलिस वाला। यह स्थानीय इंतजाम है जिस पर राजनीतिक या आतंकी घटनाओं की रेखाएं अपना असर नहीं खींच सकतीं। यह प्रकृति की गोद में पल रहा प्रेम है और अपनी रक्षा के लिए भी यह किसी सुरक्षा एजेंसी पर नहीं बल्कि प्रकृति पर ही निर्भर करते हैं।

दूसरा वर्ग कार में इश्क फरमाता है। इसके लिए दिक्कत थोड़ी बढ़ेंगी। मध्यम वर्गीय या निम्नवर्गीय जगहों पर कार पार्क करके यह वर्ग प्रेम नहीं करता। यह वर्ग आम तौर पर कुछ वीआईपीनुमा इलाकों के करीब की जगह खोजता है जहां बड़े लोग अपने घरों से पैदल निकलते ही नहीं। यहां कार में शहदनुमा बातें करने का स्वाद ही अलग रहता है। लेकिन मुंबई हादसे की वजह से यह वर्ग भी अब परेशानी में है। जाने कब पुलिस आ जाए और मान ले इन्हें आतंकवादी। इस वर्ग को पहले वर्ग की तुलना में ‘खर्च’ भी ज्यादा देना पड़ता है।

लेकिन सबसे बड़ी दिक्कत में है - तीसरा वर्ग। यह वर्ग प्रेम के लिए अक्सर बड़े होटलों को चुनता था और इनसे कथित प्रेम करने वाला पार्टनर भी कपड़ों की तरह अक्सर बदला करता था। इनकी प्रेयसी कभी बीस साल की बाला होती थी कभी चालीस की खाला। वो कभी मासूम होती थी, कभी सीधे किसी व्यावसायिक इलाके से लाई गई, लेकिन चूंकि यहां आने वाले लोग मोटी जेब और बड़े रसूख वाले होते थे, इसलिए प्रेमिका को पत्नी जैसा मानने की नाकाम कोशिशें की जाती थीं। इन्हें होटलों में नोटों के धंधे और ड्रग्स की तिकड़में बैठती थीं। अब जब बड़े पांच सितारा के खाक होने पर कुछ सितारे जार-जार होकर रो रहे हैं और कह रहे हैं कि उनकी इन होटलों से हसीन यादें जुड़ी थीं, तो वे सही ही हैं। यादें स्लम से कैसे जुड़तीं। गौर की बात यह कि होटलों में प्रेम-अप्रेम या अध-प्रेम जैसा कुछ भी करते रहने पर पकड़े जाने की कोई आशंका नहीं रहती थी। इसलिए यहां रूकने का खर्च भले ही मोटा होता था लेकिन बचने के लिए पैसे देने का कोई खर्च नहीं।

तो इन होटलों ने प्रेम और प्रेम से कुछ दूर वाले लेटे रिश्तों को बहुत करीब से देखा है। यहां पार्क के पेड़ों के साए वाले काफी हद तक छांवदार रिश्ते भले ही अक्सर न पनपे हों लेकिन ऐसा बहुत कुछ होता रहा है जो समाज से छिपा रहा। इस वर्ग को कथित प्रेम करते न तो पुलिस ने पकड़ा, न पैसे लिए और न ही चाय वाले ने इनके प्रेम को देख कर मंद मुस्कान दी। यहां प्रेम दरअसल प्रेम न होकर बाजार के प्रोडक्ट जैसा ही रहा।

लेकिन यह वर्ग अब जाएगा कहां? खबर है कि बड़े होटलों में अब सीसीटीवी तैनात किए जा रहे हैं। अब हर-आने-जाने-ठहरनेवाले की पूरी तहकीकात की जाएगी। पुलिस तक तमाम तरह की रिपोर्टों पहुंचाई जाएंगी और अगर कोई बार-बार पत्नी का नाम बदल या भूल रहा होगा तो भी सूचना का रिकार्ड बनाया जाएगा। बात पसीना छूटने वाली है। आंतकी इससे डरे न डरें लेकिन यहां आकर तमाम गोरखधंधे करनेवालों की अब शामत आ गई है।

तो क्या उन्हें भी अपने लिए किसी पार्क की तलाश कर लेनी चाहिए और क्या पुलिस को भी पार्क में प्रेम में डूबे शायरों पर नजरें गढ़ाने की बजाय वह काम करना चाहिए जो उन्हें सौंपा गया है?

दोनों सवाल अहम हैं। लेकिन होटल मालिक अब यह बात किससे कहें कि मुंबई की इस सुनामी से चकाचौंध के बीच होने वाले तमाम काले साए जब दरकिनार हो जाएंगे तो उनके प्रेम-व्यवसाय का होगा क्या?

Dec 2, 2008

मुंबई कांड - जाग गया हिंदुस्तान

शाबाश इंडिया शाबाश। मुंबई की घटना के बाद दो परिवारों ने जिस हिम्मत के साथ इस संदेश को दिया कि चले जाइए आप हमारे घर से। नहीं चाहिए हमें आपकी हमदर्दी, नहीं चाहते हम आपकी सांत्वना का कोई बाउंस हुआ चैक। इस सच ने बहुत दिनों बाद दिल को सुकून दिया। सुकन यह सोच कर मिला कि आखिरकार जाग गया हिंदुस्तान क्योंकि सच को कहने के लिए हिम्मत का होना जरूरी है। हिम्मत चाहिए यह कहने की कि राजनीति की गद्दारी हमें समझ में आ रही है, इसलिए अब हमें आपकी कोई जरूरत नहीं।

मुंबई के बहाने इस बार जनता ने बहुत कुछ देखा। इस बार एक साथ ऐसी कई चीजें देखीं जो अब तक टुकड़ों में नसीब होती थीं। जनता ने देखा कि सबसे बड़ा मूर्ख वर्ग भी वही है और अब सबसे निर्णायक भी। पहले बात राजनीति की। आतंकवादी हमला हुआ और ताबड़तोड़ शुरू हुई राजनीति। देश के नाकाबिल गृह मंत्री को अपने पद से हटाने के लिए सरकार ने लंबा मौन साधा। जब कुछ जानें गईं, दबाव बढ़ा तो दस जनपथ जागा और देश के सबसे महत्वपूर्ण पद पर आसीन मंत्री को किसी तरह विदाई दी गई। लेकिन क्या यह सब पहले नहीं किया जा सकता था?

फिर आए बयान। विलासराव देशमुख कहते हैं-बड़े-बड़े शहरों में छोटी-छोटी घटनाएं हो ही जाया करती हैं। वे बोले कुछ इस अंदाज में कि मानो खेल-खेल में बच्चों के महज दो-चार खिलौने ही टूटे हों। ऐसा नहीं है कि अपने इस बयान के बाद मंत्री जी को कोई शर्म आ गई हो। इसके बाद वे रामगोपाल वर्मा औऱ अपने बेटे रीतेश देशमुख के साथ मौके का जायजा लेने जाते हैं। यह सब कुछ ऐसे अंदाज में कि मानो रात के खाने के बाद आइसक्रीम खाने निकले हों। बेटे और एक फिल्म निर्माता को इसलिए साथ ले गए कि देखो अभी जो लाइव देख रहे थे, उस नजारे को वीआईपी घेरे में अपनी आंखों से देखो और फिर इस पर हारर या फिर कामेडी जैसी कोई भी फिल्म चट-पट बना डालो। धन्य हैं महाराज।

फिर मुख्तार अब्बास नकवी साहब। वे सीधे औरतों की लिप्स्टिक पर वार करते हैं। मजा देखिए। हाथों में दर्जनों चूड़ियां पहन कर बयान बहादुर बनने वाले हमारे राजनीतिक दामादों को जब कोई उपमा नहीं मिलती तो वे सीधे औरत को पकड़ते हैं बिना यह सोचे कि लिप्स्टिक लगाने वाली महिलाएं उन पुरूषों से लाख दर्जे बेहतर हैं जिनमें मर्दानगी कभी पैदी हुई ही नहीं।

लेकिन इन सबके बीच मीडिया ने भी कम करतब नहीं किए। हमारी अपनी बिरादरी के कई जांबाजों ने दुश्मन की भरपूर मदद की। उनका मार्गदर्शन किया कि हेमंत करकरे कहां-कहां जा रहे हैं। ताज के किस फ्लोर पर कौन-कौन फंसा है। एनएसजी कमांडो कहां से आ रहे हैं। यहां तक कि आतंकवादियों के लाइव फोन भी टीवी पर दिखाए गए ताकि आतंकवादियों का हौसला बढ़े। कुल मिलाकर कुछ चैनलों ने भारत की बजाय पाकिस्तान की भरपूर मदद की।

इस दहशत की एक-एक किरचन को भोगा जनता ने और समझा दर्द में तार-तार होना। जनता ने देखा कि जब जरूरत पड़ी तो आग में न नेता उतरे न मीडिया (और दोनों ही जिस हद तक भी उतरे, उसके पीछे उनका अपना स्वार्थ था)। यहां देशभक्ति की भावना सर्वोपरि नहीं थी। यहां ऊपर था-अपना मुनाफा। खुद का टीवी के परदे पर चमकना, कुछ एक्सक्लूयजिव कर जाना।

अब जब सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने हर बार की तरह कुछ चैनलों के हाथों में नाटक भरे नोटिस थमा दिए हैं और केंद्र सरकार ने हल्की-फुल्की सरकारी कवायदें कर दी हैं, एक बात जो किसी के जहन में नहीं आ रही वह यह है कि अब इन पर विश्वास करेगा कौन? वे यह भी नहीं समझ पा रहे कि कविता करकरे जब एख नरेंद्र मोदी से एक करोड़ का चैक लेने से इंकार कर देती है तो उसका क्या मतलब होता है?

बहरहाल जनता का विश्वास अब कमांडो पर है। वही कमांडो जिस पर केरल के मुख्यमंत्री ने कहा कि अगर वो शहीद न होता तो कोई कुत्ता भी वहां न जाता। मुख्यमंत्री जी भूल गए कि कुत्ता मंत्रियों से ज्यादा वफादार होता है। वे वहां जाएं न जाएं, वहां कुत्ते भी जाएंगे और आम जनता भी क्योंकि आखिरकार यही मायने रखते हैं।
तो देश के हुक्मरानों, अब यह जान लीजिए कि सिर्फ उन्नीकृष्णन ने ही अपने घर का दरवाजा आपके मुंह पर नहीं मारा है, यह तमाचा तो अब जनता भी आपके चेहरे पर चिपका चुकी। अब चिपके रहिए अपनी कुर्सी से और बनिए बयान बहादुर। हिंदुस्तान जीता है, जीतेगा –लेकिन आप लोगों की बदौलत नहीं, अपनी बदौलत।

(http://khabar.josh18.com/blogs/36/131.html)