Nov 29, 2008

आओ कि कर लें सियासत

तलाक़ दे रहे हो नज़रे-कहर के साथ
जवानी भी मेरी लौटा दो मेहर के साथ

कमाल अमरोही से तलाक के बाद मीना कुमारी ने अपने दर्द को इस शेर के जरिए बयान किया था। दर्द कोई भी हो, मन को बेचैन करता है। मुंबई में जो भी हुआ, उस पर सियासत का मौसम अब शुरू हुआ है। लेकिन सियासत करने वाले जिस तवे पर तंदूरी रोटी सेंक कर छप्पन भोगों के साथ खा रहे हैं, वे शायद भूल रहे हैं कि बिलों से बाहर आकर मीडिया से रूबरू होने के अब कोई मायने नहीं। क्या वे लौटा सकते हैं उन जानों को जो इस हादसे में चली गईँ?

शुक्र है नहीं देखा मीडिया ने

आज चुनाव हो गए हैं बाबा-बेबी लोग भी थक गए हैं रिलैक्स करने जाएंगे लंदन इतने दिन कितना कुछ तो मना था रात में तेज गाड़ी चलाना पब में अपने अनूठे अपनों के साथ ड्रिंक करना और लेना कुछ महदोश कश कहीं मीडिया देख लेता तो हार ही जाते पापा अब बाबा लोगों को चैन मिला है मुंबई की वजह से वैसे भी हैं डिस्टबर्ड इसलिए मेंटल शांति के लिए जा रहे हैं विदेश कृपया इन्हें अब अगले पांच साल तक न करें डिस्टर्ब।

सहारनपुर टू मुंबई- आशुतोष महाराज

तीन महीने पहले तक सहारनपुर के उस मोहल्ले के लोग भी शायद आशुतोष कौशिक को नहीं जानते थे जहां वह पले-बढ़े और जो जानते थे, उनके लिए आशु एक ढाबे मालिक से ज्यादा शायद कुछ नहीं था। आज वही आशुतोष एक बड़ा आदमी बन गया है क्योंकि उसने बिग बास में जीत हासिल कर ली है। अब वह पेज तीन का छोरा बन गया है और बहुतों की आंखों का तारा।

पर आशुतोष की यह जीत सिर्फ ढोल-नगाड़ों की धमाधम से कहीं आगे भी सोचने को मजबूर जरूर करती है। ऐसा क्या था इस लड़के में कि वह बहुत से मामलों में अपने से आगे दिख रहे प्रतियोगियों को भी हरा कर एक करोड़ का सेहरा अपने सिर पर बंधा गया ? बेशक यह सिर्फ किस्मत का खेल नहीं बल्कि दर्शक के स्वाद और आम इंसान की रूचियों की भी एक बढ़िया मिसाल है।

दरअसल कलर ने जब बिग बास की शुरूआत की तो कई मीडिया विश्लेषकों के माथे पर बल दिखाई दिए। वजह यह कि 90 दिन तक एक इमारत में बंद इन कलाकारों के जरिए चैनल क्या दिखाना-कहना चाहता है, यह बहुत साफ नहीं था। यह भी लगा कि इसमें कई ऐसे कलाकारों को जुटा दिया गया जो कि नाम-पैसे की मीडिया की दुनिया में तकरीबन गुमनाम होने लगे हैं। दूसरे, बिग बास खाली लोगों को जमावड़ा ज्यादा दिखा और सृजनशीलता का बेहद कम। सही कहें तो यह सास-बहू की किच-किच का लाइव टेलीकास्ट ही था जहां कलाकरों का काम था-एक दूसरे की बुराई करना और बात-बेबात झगड़ा करना। खाली दिमाग के शैतानों के इस घर में खाते-पीते, एक पोटली-सा पर्स लटकाए, चुगली करते कलाकार कई बार टीवी के बेहद कीमती माने जाने वाले एयरटाइम की खिल्ली उड़ाते ही दिखे।

लेकिन इस कार्यक्रम की अवधारणा भी शायद यही सोच कर रची गई। देखना यह था कि ऐसी लाइव किच-पिच दर्शकों को कितना लुभाती है। मजे की बात यह रही कि बिग बास की आलोचना करने वाले कई लोग इसे गौर से देखने भी लगे और जीतने वाले को लेकर तुक्कों की बरसात भी शुरू हो गई। बेशक ज्यादातर तुक्के राहुल महाजन की जीत के आस-पास बुने गए लेकिन आखिर में जीते आशुतोष ही।

आशुतोष की इस जीत ने कई बातें साबित कीं। एक छोटे-से शहर के इस छोरे ने बिना दुराव-छिपाव के शो में कहा कि वह ढाबे वाला है। इसने एक बार फिर साबित किया कि ग्लैमर की चकाचौंध में भी ऐसे लोग जीतने लगे हैं जो अपने छोटे से कुनबे को भूले बिना आगे बढ़ रहे हैं। जो कैमरे के आगे शरमा कर यह नहीं कह रहे कि वे ढाबा नहीं बल्कि एक रेस्त्रां चलाते हैं। जो इसे कहने में हिचक नहीं रहे कि उन्हें अंग्रेजी बोलनी नहीं आती। वे तो ठेठ हिंदी वाले हैं। यह कहने में भी उनकी जुबान तलवे से नहीं चिपकती कि दरअसल इतनी विविधता वाला खाना उन्हें अपने घर पर खाने को नहीं मिलता। वे सहज हैं। शायद इसीलिए वे आसानी से स्वीकार्य भी है। भले ही आशुतोष को बिग बास के शुरूआती चरण में किसी ने कोई तवज्जो नहीं दी लेकिन वह मायूस नहीं हुआ। वह बेफिक्र रहा और बिंदास भी और अपनी इसी मीठी सहजता के चलते डायना हेडन का चहेता भी बन गया।

वैसे लगता यह भी है कि इस तरह की किच-किच वाला कार्यक्रम इस बार भले ही सफल रहा लेकिन यह प्रयोग अगर बार-बार इसी खाली दिमागधर्मिता के बीच रिपीट होता रहा तो दर्शक इससे भी ऊब सकता है। दर्शक को खींचने के लिए नएपन को चमकीली तश्तरी में सजाना जरूरी है। दूसरे, यह भी कि न्यूज के तनावों के बीच जनता जब इस तरह के चंचल कार्यक्रमों से जुड़ती है तो संदेश यह भी जाता है कि जनमानस को सपनों के सौदागर जितनी आसानी से लुभाते-रिझाते हैं, उतनी आसानी से दिमागी कसरतें नहीं। वैसे भी बरसों पहले ही एक समाज शास्त्री ने यह कह दिया था कि टेलीविजन का काम विशुद्ध रूप से मनोरंजन की खुराक देना ही होना चाहिए( दिमागी मैदान पर बड़ी-बड़ी बातें करने की कोशिश करते ही इलेक्ट्रानिक मीडिया जरा हकलाने तो लगता ही है)।

बहरहाल आशुतोष को एक करोड़ की ईनामी राशि मिली है। छोटे शहर के छोरे की झोली में पैसे झमाझम बरसने का मौसम शुरू हो गया है। वह तय ही नहीं कर रहा कि जीवन में पहली बार मिली इस बड़ी राशि से वो करेगा क्या? लेकिन राशि से बड़ी बात यह है कि इस जीत ने उन करोड़ों के दिलों में सपनों की दीवाली सजा दी है जिनकी धूलभरी पलकों पर आज भी कुछ सपने सजे हैं।

वैसे ताजा खबर यह है कि वे अब चुनाव प्रचार के मैदान पर उतर आए हैं।

(यह लेख 27 नवंबर, 2008 को जनसत्ता में प्रकाशित हु्आ)

Nov 16, 2008

नए जमाने का मीडिया-कम्यूनिटी रेडियो

हाल ही में जब छत्तीसगढ़ के गांव छेछर में 71 वर्षीय एक महिला सती हुई तब आंध्र प्रदेश के मछनूर गांव की कुछ दलित महिलाएं खुद समाचार बन रहीं थीं। इन महिलाओं ने नरसम्मा के नेतृत्व में एक सामुदायिक रेडियो की शुरूआत कर डाली। आंध्र प्रदेश की राजधानी हैदराबाद से 110 किलोमीटर की दूरी पर स्थित मछनूर गांव में संगम रेडियो का उद्घघाटन सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज जस्टिस पी बी सावंत ने किया( इन्हीं जस्टिस सावंत ने 1995 में प्रसारण तरंगों पर से राज्य के नियंत्रण को हटाने का महत्वपूर्ण फैसला दिया था)। गौरतलब यह भी है कि संगम रेडियो को एशिया का पहला ऐसा सामुदायिक रेडियो होने का गौरव हासिल हो गया है जो कि पूरी तरह से महिलाएं चलाती और संभालती हैं और इस रेडियो में बातें सौंदर्य या खान-पान की नहीं बल्कि ईको-कृषि, पर्यावरण,भाषा,संस्कृति, खेतों में महिला अधिकार जैसे गंभीर मुद्दों पर होती हैं। इस रेडियो की गूंज 25 किलोमीटर के क्षेत्र में सुनी जा रही है और यह आस-पास के 100 गांवों को कवर कर रहा है जिनकी आबादी करीब 50,000 है। पर इस सच से परे एक सच यह भी है कि भारत की एक बड़ी आबादी सामुदायिक रेडियो के नाम से भी परिचित नहीं है। एक ऐसे समय में, जबकि फिक्की यह कह रहा है कि भारत में एंटरटेंनमेंट मीडिया 19 प्रतिशत की वार्षिक दर से छलांगें भर रहा है, सामुदायिक रेडियो पर ज्यादा बातें नहीं होतीं। वजहें कई हैं। एक तो सामुदायिक रेडियो का दायरा बेहद छोटा होता है। कहीं 20 किलोमीटर तो कहीं 50। दूसरे इसे चलाने और इससे फायदा पाने वाले भी बेहद आम और स्थानीय होते हैं और यहां परोसी जाने वाली सामग्री भी उन्हीं के इस्तेमाल की होती है लेकिन यहां यह नहीं भूला जाना चाहिए कि इस रेडियो की ताकत असीम है क्योंकि इसका संचालक, कार्यकर्ता और उपभोक्ता वह वर्ग है जो इस देश की चुनाव प्रक्रिया में सबसे महती भूमिका निभाता है। दरअसल भारत में सामुदायिक रेडियो की लहर 90 के दशक में आई। 1995 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि 'रेडियो तरंगें जनता की संपत्ति हैं।' यह एक शुभ समाचार था लेकिन शुरूआती दौर में सिर्फ शैक्षिक स्तर पर ही ऐसे स्टेशनों को खोलने की इजाजत दी गई। इस दशा में चन्नई स्थित अन्ना एफएम पहला कैंपस सामुदायिक रेडियो बना जिसे आज भी एजुकेशन एंड मल्टीमीडिया रीसर्च सेंटर चलाता है और इसके तमाम कार्यक्रमों को अन्ना विश्वविद्यालय के छात्र ही तैयार करते हैं। लेकिन परिस्थितियों में तेजी से बदलाव नवंबर 2006 से आना शुरू हुआ जब भारत सरकार ने एक नई नीति के तहत गैर-सरकारी संस्थानों और दूसरी सामाजिक संस्थाओं को भी सामुदायिक रेडियो शुरू करने की इजाजत दे दी। इस समय भारत में 6000 से ज्यादा सामुदायिक रेडियो खुल चुके हैं। नई नीति के तहत कोई व्यक्ति विशेष या फिर आपराधिक या राजनीतिक पृष्ठभूमि की संस्थाओं के अलावा कोई भी सामाजिक सरोकारों से जुड़ी संस्था सामुदायिक रेडियो के लिए आवेदन दे सकती है लेकिन चूंकि ऐसे रेडियो स्टेशनों के लिए केंद्र के स्तर से फंड नहीं मिल पाता और इनके लिए फंड जुटाने को लेकर कई कडे नियम भी हैं, ऐसे में सामुदायिक रेडियो के लिए लाइसेंस पाना भले ही आसान हो लेकिन उसे लंबे समय तक चला पाना किसी परीक्षा से कम नहीं। वैसे भी इसका लाइसेंस ऐसी संस्थाओं को ही मिल सकता है जो कम से कम तीन साल पहले रजिस्टर हुई हों और जिनका सामुदायिक सेवा का ' प्रमाणित ट्रैक रिकार्ड ' रहा हो। लेकिन लाइसेंस मिलने के बाद भी दिक्कतें कम नहीं होतीं। 12 किलोमीटर के दायरे की सीमा तक में बंधे सामुदायिक रेडियो के साथ यह शर्त भी जुड़ी होती है कि उसके करीब 50 प्रतिशत कार्यक्रमों में स्थानीयता हो और जहां तक संभव हो, वे स्थानीय भाषा में हों। एक घंटे में 5 मिनट के विज्ञापनों की छूट तो है लेकिन स्पांसर्ड प्रोग्रामों की अनुमति नहीं है( वे केंद्र या राज्य द्वारा प्रायोजित हों तो बात अलग है और वहां से स्पांसरशिप मिलना अपने में टेढ़ी खीर।) लेकिन तमाम दबावों के बीच सामुदायिक रेडियो से जुड़े कार्यकर्ताओं ने एक अनौपचारिक फोरम का गठन कर डाला है और मजे की बात यह है कि देश भर के कई टीवी पत्रकारों को जितने मेल सामुदायिक रेडियो से जुड़े इस फोरम से मिलते हैं, उतने मीडिया के किसी भी दूसरे माध्यम से नहीं। दरअसल सामुदायिक रेडियो पर सबसे ज्यादा बातें सुनामी के समय हुईं। उस समय जबकि प्रसारण के तमाम हथियार ढीले पड़ गए थे, सामुदायिक रेडियो के जरिए हो रही उद्घघोषणाओं के चलते ही अंडमान निकोबार द्वीप समूह में करीब 14,000 लापता लोगों को आपस में जोड़ा जा सका था। बहरहाल भारत के पिटारे में एक और सामुदायिक रेडियो जुड़ गया है। यह रेडियो फिलहाल हर रोज 90 मिनट का प्रसारण ही देगा लेकिन दिन-पर दिन इसका प्रसारण समय भी बढ़ेगा और इसकी ताकत भी क्योंकि सामुदायिक रेडियो जैसे 'अनाकर्षक' दिखने वाले माध्यम में बाजार के सीधे दखल और दबाव के बढ़ने के आसार अभी कम ही हैं। (यह लेख 16 नवंबर, 2008 को दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित हुआ)

Nov 6, 2008

कुछ बात है कि हस्ती मिट नहीं सकती

ऐसे मौके विरले ही आते हैं जब अखबारों की सुर्खियां वे चेहरे बनते हैं जिन्हें देखते ही सम्मान जगे।

बहुत पहले किसी ने सीख दी थी। करियर में बदलाव लाना हो तो तब लाओ जब वो शीर्ष पर हो। अनिल कुंबले के संन्यास ने इसी बात को पुख्ता किया है। कुंबले ने एक ऐसे समय पर क्रिकेट को अलविदा कहा है जब उन पर ऐसा करने का न तो कोई दबाव था और न ही कोई मजबूरी। अपनी मर्जी से वे एक दिवसीय क्रिकेट से पहले ही संन्यास ले चुके थे और यह साफ था कि टैस्ट क्रिकेट भी वे अब ज्यादा दिन खेलने वाले नहीं हैं। वे जब तक खेले, शान और अदब के साथ खेले। दिल्ली के फिरोज शाह कोटला मैदान पर कुंबले की वह पारी हमेशा याद की जाएगी जब उन्होंने पाकिस्तानी टीम के दसों विकट गिरा दिए थे।

कुंबले के पास सफलता रही लेकिन ग्लैमर की चाश्नी कभी साथ नहीं चिपकी। इस मामले में वे सचिन तेंदुलकर या सुनील गावस्कर जैसे खिलाड़ियों से बहुत अलग रहे। वे ललचाती-लपलपाती जीभ लटकाते ऐसे खिलाड़ी के तौर पर कभी भी नहीं देखे गए जो हर समय किसी भी स्तर का विज्ञापन कर तिजोरी भरने के मौके की फिराक में रहे। उन्होंने जो भी किया, उसे भरपूर जीया। क्रिकेट के मैदान पर वे डूबे अंदाज में खेलते दिखे और बाद में फोटोग्राफी करते। एक ऐसे समय में, जबकि क्रिकेटर क्रिकेट कम और पैसे बनाने के दूसरे करतब करते ज्यादा नजर आते हैं, कुंबले ने अपनी छवि की गंभीरता को करीने से बनाए रखा।

कुंबले के पास आने वाले समय के लिए न तो मौकों की कमी है और न ही काबिलियत की। उनका शुमार भारतीय क्रिकेट टीम के अतिशिक्षित खिलाड़ियों में होता है। उनके पास बाकायदा इंजीनियरिंग की डिग्री है, आवाज में प्रोफेशनल सधाव है और भाषा पर पूरा अधिकार भी। इसके अलावा है- 132 टेस्ट खेलने का अनुभव। अपनी व्यवहार-कुशलता की वजह से उनके पास भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड का सहयोग और खिलाड़ियों का साथ भी है। यह एक ऐसी संपदा है जो उन्हें अब तक के रूतबे से कहीं आगे ले जाने की कुव्वत रखती है। वैसे संभावना यह भी है कि वे उदीयमान खिलाड़ियों के लिए एक अकादमी खोलेगें और कोच की जिम्मेदारी निभाएंगें। इसके अलावा अपने हुनर से वे क्रिकेट पर एक सॅाफ्टवेयर भी तैयार कर सकते हैं जिसकी जरूरत एक लंबे अरसे से महसूस की जा रही है।

लेकिन यहां एक बात पर गौर जरूर किया जाना चाहिए। आज कुंबले के सामने जो अपार संभावनाएं बन रहीं हैं, उनकी इकलौती वजह उनका खेल-अनुभव या व्यवहार-कुशलता ही नहीं है बल्कि एक वजह उनके पास पर्याप्त शिक्षा का होना भी है। यह बात जोर देकर कही जानी इसलिए भी जरूरी है क्योंकि मौजूदा दौर में टीवी की दुनिया की चकाचौध नई पीढ़ी के मन में यह गलतफहमी भरने लगी है कि पढ़ना शायद बेहद जरूरी नहीं। इसकी दो मिसालें हैं- एक तो टीवी चैनलों पर शिक्षा से जुड़े कार्यक्रमों का एकदम न के बराबर दिखना( याद कीजिए कितने टीवी चैनलों पर आपको क्विज दिखाए देते है? ऐसा कथित बोरियत का काम सरकारी भोंपू दूरदर्शन के ही पास सुरक्षित कर दिया गया है लेकिन अब उसने भी शिक्षा की बात कभी-कभार के लिए समेट दी है) और दूसरे संगीत के तमाम सर्कसनुमा अ-गंभीर कार्यक्रमों में शिक्षा से जुड़े सरोकार जगाते सवालों का तकरीबन न पूछा जाना। मीडिया सेक्टर से जुड़े लोग बखूबी जानते हैं कि रातों-रात लता मंगेश्कर और माइकल जैक्सन बनने की ख्वाहिश रखने वाले कई युवा बड़ी गलतफहमियों के चलते अपनी पढ़ाई अधूरी छोड़ मुंबई जा बसे हैं। ( मीडिया यह नहीं बताता कि कैसे बुनियादी शिक्षा छोड़ देने और बाद में कैरियर के भी न बनने पर किस तरह उनका भविष्य दांव पर लग जाता है)

तो बात कुंबले की हो रही थी। कुंबले ने एक राजा की विदाई पाई है। 2 नवंबर को फिरोजशाह कोटला मैदान में उनके साथियों और प्रशंसकों ने उन्हें हाथोंहाथ लिया। उनके लिए जो तालियां बजीं, उसकी गूंज बहुत दूर तक सुनाई दी। अगले दिन उनकी तस्वीरें सभी प्रमुख अखबारों के मुख पृष्ठ पर छपी। ऐसा बहुत दिनों बाद हुआ कि अखबारों में खुशी और गर्व एक साथ झलका- वह भी बिना किसी सियासती दांव-पेंच के। मीडिया ने उनके इस कदम को सलाम किया।

दरअसल कुंबले अपने लिए महानता का सर्टिफिकेट खुद लिख गए हैं। गौर करने की बात यह है कि अपने इस कदम से वे अपने वर्तमान और अपनी अतीत की उपलब्धियों से कहीं आगे की चहलकदमी पर निकल गए हैं। जैसी विदाई उन्हें मिली, वैसी तो सुनील गावस्कर के हाथ भी नहीं आई और उन्हें पलकों के आचल पर बिठाकर यह विदाई सिर्फ इसलिए भी नहीं दी गई कि वे 619 विकेट लेने वाले भारत के सबसे सफल गेंदबाज थे। वे ईमानदार खिलाड़ी भी थे। वे 18 साल मैदान पर बने रहे और उनका नाम उस खिलाड़ी के तौर पर दर्ज है जिसने भारत को सबसे ज्यादा बार जिताया। उन्होंने यह साबित किया कि वे सबसे महान स्पिनर हैं। अपनी पसंदीदा टोपी पहने खेल के मैदान पर खेलते वे अब नहीं दिखेंगें लेकिन यह एक सीमित सोच है। जो दस्तक सुनाई पड़ रही है, वह यही कहती है कि अब एक नए कुंबले से साक्षात्कार का समय आ गया है। यह नया कुंबले खिलाड़ी कुंबले से कहीं ज्यादा प्रभावशाली और सफल होगा।

अब जबकि कई क्रिकेटर फैशन शो में रैंप पर थिरक रहे हैं, फिल्मी शोज में बहूदे ढंग से मटक रहे हैं या फिर बेतुके चुटकुले पर दहाड़ें मार कर हंस रहे हैं, कुंबले जैसे खिलाड़ी सम्मान और गरिमा की एक मिसाल तो हैं ही।वैसे सच कहें तो वे क्रिकेटरों की जमात से भी बड़ी मिसाल उन राजनेताओं के लिए हैं जो अपनी रिटायमेंट की उम्र लांघने के दशकों बाद भी रिटायर होना नहीं चाहते। सच ही है। किसी बदलाव को गरिमा और आत्म-सम्मान के साथ आमंत्रित करना और उसे बारीकी से समेटना बिना मानसिक ताकत और हिम्मत के संभव ही नहीं।

Nov 4, 2008

भारतीय मीडिया- समय दिशा-निर्धारण का

36 खरबपतियों और 36 करोड़ बेहद गरीब लोगों के इस देश में मीडिया एक महाशक्ति का आकार लेने लगा है। दुनिया के नक्शे पर अब भारत की पहचन सिर्फ एक बड़ी आबादी वाले 60 वर्षीय आजाद देश के रूप में ही नहीं है। लगातार सक्रियता के बाद अब वह एक ताकत के रूप में उभर रहा है और इसकी एक वजह यह भी है कि दुनिया के सबसे ज्यादा युवाओं वाले इस देश की गिनती उन विरले देशों में भी होती है जिसका मीडिया सबसे ज्यादा सक्रिय, विस्तृत और ऊर्जावान है। फिक्की की ताजा रिपोर्ट इस विश्वास को और पुख्ता करती है। रिपोर्ट कहती है कि मीडिया के मामले में फिलहाल भारत का कोई सानी नहीं। मीडिया का विज्ञापन बाजार 22 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है। टेलीविजन की विकास दर 17 प्रतिशत है जबकि रेडियो की 24 प्रतिशत। प्रिंट मीडिया 16 प्रतिशत की दर से अपनी सेहत बना रहा है जो कि दुनिया में सबसे ज्यादा है। इलेक्ट्रानिक मीडिया में निजी पंखों के आने के बाद बदलाव की एक बयार चली है। साठ या सत्तर के दशक का दर्शक खबर की सुर्खियां और थोड़ी-बहुत फुटेज देख कर परम सुख अनुभव कर लेता था। उसकी सोच की खिड़कियां छोटी थीं और उनसे उसे बाहर की जो सिमटी हुई सीमित तस्वीर मिलती थी, वह उसे ही काफी मान लेता था क्योंकि उसका इससे बेहतर विकल्पों से सामना हुआ ही नहीं था। कई बार खास मौकों पर उसके जहन में यह विचार जरूर आता था कि काश वह इससे ज्यादा कुछ जान-देख पाता लेकिन चूंकि वह प्रतियोगिता का दौर नहीं था और न ही दुनिया भर के दूसरे विकल्पों की सुलभ जानकारी थी, वह कुंए के मेंढक की तरह जो दिया गया, उसी में भक्ति-भाव से लीन रहा। लेकिन इससे एक और बात साबित होती है। भारतीय दर्शक की भूख और ललक अब कई गुना बढ़ गई है। इंदिरा गांधी की हत्या के समय उसे एक सफदरजंग से एक जगह चिपका-से गए कैमरे से शॅाट्स दिखाए गए। कैमरा जब थोड़ा-बहुत अंदर-बाहर घूमा तो से कुछ विवधता दिखी, वह उसी में धन्य हो गया। चर्चित हस्तियों पर बरसों उसे बहुत सामग्री नहीं मिली। शायद इसीलिए वह प्रभावशाली लोगों से जरा भयभीत भी रहा। प्रिंट मीडिया जरूर समय-समय पर उसे खबरों के नए-नए पकवान परोसता रहा लेकिन टेलीविजन की दुनिया का पिछड़ापन लंबे समय तक बना रहा। लेकिन तकनीक बदलती गई। खाड़ी युद्ध घर की बैठक में बैठकर देख भारतीय दर्शक की जो आंखें खुलीं, वो उसके लिए एक नए अध्याय की शुरूआत थी। मैकलुहान ने बरसों पहली अपनी चर्चित किताब में जिस ग्लोबल विलेज की बात कही थी, वह आज पूरे विस्तार के साथ साकार होती दिख रही है। अब रिमोट का बटन उसे यह विश्वास दिलाता है कि यह दुनिया वाकई एक छोटा गांव है। एक आम भारतीय घर बैठकर टीवी के जादुई रिमोट से अंतरिक्ष की सैर कर आता है, वह देखता है कि उसके जैसे लोग स्टूडियो में माइक लगाए बड़ी-बड़ी बातें कह डालते हैं। अब न हिचक है, न रोक। इलेक्ट्रानिक मीडिया ने एकाएक उसे ताकतवर, बेताब और बेबाक बना डाला है। वह अब सबकी खबर लेता है लेकिन इस बेबाकी के बावजूद एक सच यह भी है कि इलेक्ट्रानिक मीडिया जिस समाज के लिए ज्यादा फिक्रमंद दिख रहा है, वह मध्यम वर्ग है क्योंकि भारत के मध्यम वर्ग की आबादी अमरीका की कुल जनसंख्या से भी ज्यादा है। इसलिए उसे लुभाना लाजमी भी है और फायदेमंद भी। और इस फायदे के फंदे में मीडिया लगातार जकड़ता जा रहा है। ग्लोकल, लोकल और फोकल हुआ मीडिया नए जमाने के साथ भाग रहा है। लेकिन मीडिया की दिशा क्या हो, इस पर आज भी न तो आम सहमति बन पाई है और न ही कोई सीधा रास्ता। दूरदर्शन आज भी जनहित सेवा प्रसारण की अपनी छवि पर कायम है। उसे आज भी बोरियत भरे सरकारी प्रवक्ता के रूप में देखा जाता है और माना जाता है कि जो सत्ता में होगा, वह उसी का महिमामंडन करेगा। दूसरी तरफ निजी इलेक्ट्रानिक मीडिया आज भी काफी हद तक पैने दांतों वाले माध्यम के तौर पर देखा जा रहा है जिसके बारे में जनता मानती है कि वह कभी भी किसी को काट सकता है। जनता अब सरकारी दफ्तरों में अपनी फरियाद देने की बजाय अब अक्सर पत्रकारों के करीब जाकर अपनी बात कहने लगी है। लेकन यह तस्वीर का एक सीमित पहलू है। दूसरा पहलू है- चैनलों में राजनीतिक हस्तक्षेप की राजनीति। इसके साथ ही चैनलों की विज्ञापनों पर निर्भरता ने जन सेवा की मूल धारणा को काफी हद तक हाशिए पर धकेल दिया है। यही वजह है कि पत्रकारों का एक बड़ा कुनबा यह विश्वास करने लगा है कि मीडिया मिशन नहीं, कमीशन है। भारत में इस समय मीडिया 20 प्रतिशत की वार्षिक दर से फैल रहा है। अब टीवी न्यूज चैनल देश के चप्पे-चप्पे में पहुंचने के काफी करीब हैं लेकिन इस पहुंच से सिर्फ व्यापार साधने की मंशा रही तो इसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहने से पहले सोचना होगा। इसलिए लगता यही है कि दुनिया के इस सबसे सक्रिय माध्यम के लिए अब नीति तय करने का समय आ गया है। वह पूरी तरह से जनसेवक भले ही न बन पाए लेकिन अगर जनसेवा के लिए एक तयशुदा हिस्सा तय कर लिया जाए तो मीडिया की विकास की दर सामाजिक विकास के लिए भी मील का एक पत्थर साबित हो सकेगी। इससे पहले कि न्यूज मीडिया बोरियत की सीमा के करीब आ जाए और जन सेवा एक 'आउट डेटिड' शब्द बन जाए, मीडिया की रूपरेखा पर कुछ बुनियादी चिंतन हो ही जाना चाहिए।

Nov 1, 2008

अब क्या करेंगें हम लोग ?

नवंबर का महीना भारत के सबसे पॅापुलर माने जाने वाले टीवी सीरियल क्योंकि सास भी कभी बहू थी की विदाई लेकर आ रहा है। दरअसल 1984 और 2000- ये दोनों साल भारतीय एंटरटेंनमेंट मीडिया के यादगार सालों के रूप में दर्ज रहेंगें। 1984 में दूरदर्शन पर हम लोग का आगाज हुआ और 2000 में स्टार प्लस पर क्योंकि सास भी कभी बहू थी की शुरूआत । 80 के दशक में घिसटते अंदाज मे चल रहे दूरदर्शन के लिए मनोहर श्याम जोशी का लिखा धारावाहिक हम लोग मील का पत्थर साबित हुआ था क्योंकि कृषि दर्शन सरीखे एक ढर्रे पर चले आ रहे कार्यक्रम देख कर आजिज हो चुकी जनता का इस धारावाहिक के जरिए तकरीबन पहली बार खुद अपने से वास्ता पड़ा था। यह उस दौर का पहला ऐसा धारावाहिक था जो 13 एपिसोडों में समेटने की बजाय 17 महीनों तक चला और इसे भारत की करीब 70 प्रतिशत जनता ने देखा। मतलब यह कि इसके हर एपिसोड को करीब 5 करोड़ लोग देखा करते थे। आम लोगों के लिए बुना गया यह धारावाहिक जनता से जुड़ा था और बिना नसीहत देते हुए इसने जनहित से जुड़े मुद्दों को बड़े करीने से जनता के सामने रखा। जनसंख्या विस्फोट, शराबखोरी, अशिक्षा, अंधविश्वास, भ्रूण हत्या, बेरोजगारी, अपराध, बाल विवाह जैसे तमाम मु्द्दों को इस धारावाहिक में पिरोया गया था और हर धारावाहिक के अंत में आते थे - खुद अशोक कुमार और तमाम सामाजिक सरोकारों के बाद उनकी आखिरी पंक्ति हुआ करती थी- अब क्या करेंगें हम लोग। बेशक आज के संदर्भों में धारावाहिक की प्रोडक्शन क्वालिटी को चौपट कहा जा सकता है लेकिन यह एक ऐसा कछुआ साबित जरूर हुआ जो धीमा और अनाकर्षक होते हुए भी रेस में जीत गया। इसका एक सबूत यह भी है कि इस धारावाहिक ने टीवी सेट खरीदने वालों की भीड़ ही लगा दी। उन दिनों भारत की आबादी करीब 800 मीलियन थी और टीवी सेट था - महज 10 प्रतिशत आबादी के पास।धारावाहिक के दौरान और उसके बाद भारत में टीवी खरीदने वालों की जैसे बाढ़ ही आ गई। अब बात बालाजी टेलीफिल्म्स के धारावाहिक क्योंकि सास भी कभी बहू थी की। आठ साल की लंबी पारी खेलने के बाद यह धारावाहिक नवंबर में सिमटने जा रहा है। एकता कपूर के इस धारावाहिक को गुजरात के विरानी परिवार के आस-पास पिरोया गया। हम लोग ने जहां बसेसर राम, भागवंती, लल्लू, बड़की, छुटकी और नन्हे को सुपर स्टार बनाया, वहीं क्योंकि ने तुलसी, मिहिर, सविता और गायत्री को दर्शकों का प्रिय बना दिया। क्योंकि ने भी कई मुद्दों को उठाया- विवाहेतर संबंध, अनचाहे गर्भपात, भटकते युवा और टूटती वर्जनाओं को इस धारावाहिक में बखूबी दिखाया गया लेकिन साथ ही आलोचक यह भी कहते सुने गए कि यह धारावाहिक इन्हें रोकने के बजाय इन्हें अपनाने के लिए प्रेरित करता हुआ ज्यादा दिखा। फिर हकीकत से परे होने के संकेत भी दिखे। हम लोग के लोग आम थे और दिखते भी आम थे। इसकी नायिका भागंवती घर में जगह की कमी की वजह से रसोई में सोती थी जबकि क्योंकि कारपोरेट परिवार का सीरियल रहा। इसकी नायिकाएं अव्वल तो रसोई में दिखती नहीं थीं और अगर गलती से दिख भी जातीं तो पूरे मेकअप और भारी गहनों के साथ। इस धारावाहिक ने मृत्यु के बाद किरदार को लौटा लाने की परंपरा भी शुरू की जिसके आगे भी अपनाए जाने के आसार हैं। जहां हम लोग भारत का पहला ऐसा धारावाहिक बना जिसे विज्ञापन मिला और जब तक क्योंकि की बारी आई, भारतीय सोप ओपेरा विज्ञापनों की धूम में पूरी तरह से नहाए दिखने लगे। लेकिन इन दोनों धारावाहिकों में एक तथ्य आम रहा। वह था - संयुक्त परिवार की परंपरा। दोनों ही धारावाहिकों ने भारतीय परिवारों के इस टूट रहे हिस्से पर ही अपने पूरे कथानक को खड़ा किया। बहरहाल हम लोग की तरह अब क्योंकि के बिस्तर समेटने की बारी है। लेकिन यह साफ है कि क्योंकि की विदाई यह भी साबित करती है कि बिकता वही है, जो जनता चाहती है और जनता के लिए अहम है - परिवार। लेकिन सच यह भी है कि जनता अब सास-बहू की किचकिच से कहीं आगे जाने की तैयारी करने लगी है। इसलिए अब बारी धारावाहिक लेखकों और निर्माताओं के सोचने की है।