Oct 24, 2008

यात्रा से सुनाई देते हैं मन के मंजीरे

यात्रा से सुनाई देते हैं मन के मंजीरे मैनें अभी दुकान का दरवाजा खोला ही है कि दुकान में बैठे युवक ने तपाक से कह दिया है कि इस छोटी सी दुकान में बड़ी खुशी के साथ आपका स्वागत है।

यह ब्रसल्स है। बेल्जियम की राजधानी। यूरोपीयन यूनियन का गढ़। यहां किसी को शुद्ध हिंदी में बोलते देख कर खुशी का होना स्वाभाविक ही है। मैं इस समय ब्रसल्स के मशहूर ग्रैंड स्केयर पर चाकलेटों की दुकानें देख रही हूं। यहां की चाकलेटें पूरी दुनिया में मशहूर हैं और ढेर वैरायिटी के बीच मनमाफिक को ढूंढना और भी मुश्किल।इस दुकान को चलाने वाला युवक बताता है कि वह पंजाब के एक गांव टांडा उड़मुड़ का रहने वाला है। मैं उसे बताती हूं कि अपने पंजाब प्रवास के दौरान मेरा वहां से अक्सर गुजरना होता था। यह सुनकर उसका चेहरा और भी खिल उठता है। वह बताता है कि करीब 10 साल पहले वह अपने किसी दोस्त के साथ नौकरी के लिए यहां आया और तब से यहीं रह रहा है।

कहना न होगा कि जिस कीमत पर जिस क्वालिटी की चाकलेट उसने मुझे और मेरी दोस्त को दी(सिर्फ इसलिए कि हम हिंदु्स्तानी भी थे और उसके गांव की मामूली पहचान भी रखते थे), उसकी मैं बार-बार तारीफ करने से नहीं थकती।यहीं पर ब्रसल्स के राजा के शाही भवन के पास तीन लड़कियां दिखती हैं। वे जैसे ही हमें देखती हैं हिंदी गाने पूरे सुर के साथ गाने लगती हैं। सुनने पर एकबारगी तो हैरानी हुई, फिर ऐसा भी लगा कि ये सभी हिंदुस्तानी हैं। लेकिन ऐसा नहीं था। तीनों बेल्जियम की ही रहने वाली थीं और रोज शाम को स्थानीय भाषाओं में गाने गा-गाकर अपनी एक संस्था के लिए चंदा इकट्ठा किया करती थीं। लेकिन इन तीनों ने जब हमें देखा और पहचाना कि हम भारतीय हैं तो वे हिंदु्स्तानी गाने पूरी शिद्दत के साथ गाने लगीं। पता लगता है कि वे हिंदी फिल्मों की शौकीन हैं और उन्होंने हिंदी फिल्में देख कर ही ये गाने सीखे हैं। अपने मुल्क में भले ही मेरा नाम जोकर या काबुलीवाला फिल्म के गाने सुनकर झूमने का मौका न मिलता हो लेकिन दूसरी जमीन पर अपना संगीत सुनना मन के तारों को झंकृत जरूर कर देता है।

यह भी एक अनूठा भाव है। पराए देस में सब बेगाने अपने से लगने लगते हैं। हवाई जहाज से जहां अपने मुल्क की सीमा को छोड़ा, वहीं अपनेपन की भाषा बुनी-सुनी जानी शुरू। सब एक दूसरे की मदद को तैयार, एक-दूसरे को सुनने को तैयार।फ्रैंकफर्ट एयरपोर्ट पर सामान की तालाशी के दौरान जब मेरी एक साथी के सामान को लेकर कुछ देर लग रही थी तो मैनें उसके करीब जाकर पूछा कि क्या हुआ? तो उसके कुछ कहने से पहले सामान देख कर सिक्योरटी आफिसर ने मुस्कुरा कर कहा- कुछ नहीं। अब ये जा सकती हैं। बेहद सुखद लगा। यहां मीलों दूर पराए देश के एयरपोर्ट पर कोई अपनी भाषा में बतियाने की सफल कोशिश कर रहा है। यहां पर एक युवक मिला जो पेशे से बावर्ची था। उत्तराखंड का रहने वाला। एयरपोर्ट पर उसके वीसा को लेकर कुछ पल उलझन के आए तो मैनें देखा कि हम 8 का उससे कोई सीधा सरोकार न होने पर भी सरोकार का भाव न जाने कहां से उग आया।

यात्राएं सबसे बड़ी यही बात सीखाती हैं। यात्रा जोड़ती है और अंदर बनी गांठें खोलती है। पराए मुल्क में अपने देस की भाषा भीनी लगती है और बेहद स्वादिष्ट लगती है अपने घर की वही दाल भी जिसे घर में रोज खाते हुए उसकी अहमियत समझ में ही नहीं आती। यह हिंदुस्तान ही है कि खाने के साथ मुफ्त में मिल जाए काले नमक वाला प्याज, चटनी और साथ ही सॉस भी। लेकिन पहुंचिए विकसित देशों में और समझ में आता है कि हम जिस देश में रहते हैं, वो तो वाकई दिलवालों का है। यहां सादा पानी भी मुफ्त मिलता है(बिसलेरी लेना हो तो बात दूसरी है)। यहां रेस्त्रां में मेजबानी ऐसी होती है कि लगे कि जैसे रेस्त्रां मालिक से कोई पुरानी रिश्तेदारी ही निकल आई हो।लेकिन ताज्जुब यह कि यह दिल यहां रहते हुए अपने देस के लिए नहीं थिरकता। वो नदियों, जातियों और वर्गों के बंटवरों को देखकर नहीं मचलता। इस मुल्क में रहते हुए अपने मुल्क की भाषा शायद खुद हमारे तक सही अंदाज में पहुंच ही नहीं पाती। यहां रास्ते में इतनी रूकावटें हैं कि हमें पड़ जाती है दुभाषिए की जरूरत।

यात्रा से लौटने पर लगा कि जिंदगी की लय को समझने के लिए जमीन से जुड़े होना जरूरी है और कभी-कभी आसमान पर लटक जाना भी क्योंकि सरहदों को पार करने के बाद चश्मे पर चिपके धूल के कण खुद-ब-खुद ही साफ हो जाते हैं। यही है यात्रा की ताकत। शायद यही है यायावरी का मंत्र भी।

Oct 20, 2008

पकती खबर में अधकचरे सच

खबर है कि उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले के एक स्कूल में एक प्रधानाध्यापिका ने अपने स्कूल के बच्चों को एक कमरे में कई घंटों तक बंद करके रखा। वजह थी-उसके पर्स से 200 रूपयों का गायब होना। खबर में बताया गया कि स्कूल यातना के शिविर बन रहे हैं और बच्चों के साथ वहशियाना रवैया अपनाया जाता है। पढने में यह स्टोरी यही जतलाती है कि देश भर के स्कूल बच्चों को सिवाय यातना के कुछ नहीं देते और मौजूदा टीचर किसी खौफ से कम नहीं। ताली बजाने के लिए यह विषय रोचक, सटीक और स्वादिष्ट लगता है। एक आम पाठक शायद इस बात से सहमत न हो लेकिन इस स्टोरी को पढकर लगा यही कि यह कहानी पूरी तरह एकतरफा थी। वैसे भी एकतरफा खबरें देना मीडिया की आदत बनती जा रही है और साथ ही पोलिटिकली करेक्ट बातें कहना भी। इसकी मिसालें यहां दी जा रही हैं- हाल ही में दिल्ली के एक बेहद प्रतिष्ठित स्कूल में एक टीचर का काउंस्लर के रूप में चयन हुआ। चयन के कुछ ही दिनों बाद वे स्कूल की चेयरमेन से मिलने गईं और उन्होंने कहा कि एक विशेष क्लास के कुछ बच्चे काफी गैर-अनुशासित हैं और बेहतर होगा कि स्कूल की तरफ से कोई कारर्वाई की जाए ताकि पूरी क्लास का माहौल न बिगड़े। चेयरमैन ने बात को बीच में ही काटा और कहा- इग्नोर दैम( यानी नजरअंदाज कीजिए)। एक और वाक्या याद आता है। एक टीवी न्यूज चैनल में इसी तरह यातना के रस से भरपूर स्टोरी आई। जिस वीडियो एडिटर को वह स्टोरी एडिट करने के लिए दी गई, उसने टेप में एक आश्चर्जनक चीज पाई। उसने देखा कि माइक के सामने आने से पहले बच्चा और उसका परिवार मजे से मुस्कुरा रहा है( वे नहीं जानते थे कि उनके शाट्स लिए जा रहे थे) लेकिन जैसे ही बच्चे के सामने माइक आया, वह जार-जार होकर रोने लगा और साथ ही चिल्लाने-से लगे पिता यह कहते हुए कि कल ही उनके बेटे की किस बेरहमी से पिटाई की गई और क्लास में उसे दुत्कारा गया। उसकी गलती सिर्फ इतनी थी कि उसने अपना होम वर्क पूरा नहीं किया था ( और क्लास में वह मोबाइल पर बात कर रहा था) लेकिन न्यूज चैनल में वही सच दिखाया गया जो बच्चे ने माइक के सामने बताया था(क्योंकि चैनल का फायदा इसी में था। ऐसी फुटेज दर्शकों को खींचती जो है) अब आगे पढ़िए। महीनों बाद यह बात सामने आई कि दरअसल यह एक नाटक था, वह भी इसलिए कि स्कूल में बच्चे की छोटी बहन को एडमीशन नहीं दी जा रही थी। पर इस पर कोई स्टोरी नहीं की गई। इसी तरह ऐसे कई मामले देखने में आते रहे हैं जहां बच्चों या उनके माता-पिता ने जोरदार तरीके से बच्चे की मेंटल हैरासमेंट के आरोप लगाए हैं। यह मानसिक कष्ट बच्चे की जाति या उसके कपड़ों के ब्रांड किसी पर भी हो सकता है। लेकिन क्या कभी गौर किया गया है कि इस तरह की शिकायतें आम तौर पर बड़े शहरों से ही क्यों आती हैं? ठीक है यह कहा जा सकता है कि यह सब दूसरे शहरों में भी होता होगा लेकिन उनकी रिपोर्ट हो नहीं पाती होगी लेकिन क्या इसका एक कारण यह भी नहीं है कि अर्बन ईलीट इन मामलों में कुछ ज्यादा ही 'सक्रियता' दिखाने का आदी हो चुका है। इसमें कोई शक नहीं कि मीडिया की जरूरत से ज्यादा दखलअंदाजी नाजुक बच्चों की जमात को पैदा कर रही है। रिएलिटी शो में हिस्सा लेने वाला बच्चा कई बार यह सहन नहीं पर पाता कि उसके साथ खड़ा दूसरा लड़का उससे ज्यादा वोट कैसे पा गया। वह पसंद नहीं करता कि वह सेकेंड आए। वह पसंद नहीं करता कि दूसरे की तारीफ की जाए या फिर दूसरे के पास उससे बेहतर ब्रांड की कोई चीज मौजूद हो। इन शोज में जज बच्चों के शैक्षिक रूझानों की बात करते देखे नहीं जाते। एंटरटेंनमेंट मीडिया शायद यह साबित करने की कोशिश करता है कि पढ़ाई जरूरी है ही नहीं लेकिन मीडिया यह नहीं बताता कि जिन बच्चों ने इस चकाचौंध के चक्कर में अपना सब कुछ छोड़ दिया और आकर बस गए मुंबई में, उनका आखिर बना क्या? दरअसल मामला पॅालीटिकल खबरों को पकाने, दिखाने और उससे सही टारगेट आडयंस को लुभाने का है। मीडिया छोट-छोटे बच्चों के दिमाग में यह तो भर देता है कि उन्हें बात-बेबात टीचर, स्कूल या प्रिंसिपल को 'सू' करने (उन पर केस करने) का अधिकार है लेकिन यह बताने की जहमत नहीं उठाना चाहता कि अधिकारों के साथ कुछ कर्तव्य भी चिपके होते हैं। बेशक टारगेट आडियंस बच्चे हैं। बच्चे के हाथ में लॅालीपॅाप देने के फायदे बेशुमार है। टीचर के हाथ में झुनझुना देकर उसकी तरह भाषण देने का भला क्या फायदा? खुद सोचिए टीवी पर कितने प्रोग्राम टीचर के आसपास बुने हुए दिखाई देते हैं? मीडिया मालिक की तिजोरी को फायदा बच्चे से ही है। इसलिए उनसे कोई भी बुरा बनना नहीं चाहेगा। यहां दो बाते हैं। पहला, जे के रालिंग का कथन। वे कहती हैं- पत्रकारिता का काम है-सही और आसान में फर्क करना। यही काम मुश्किल है। दूसरा किसी समाज शास्त्री का यह कहना कि रिपोर्टर जितना देखता है,उससे ज्यादा बोलता है, जितना जानता है, उससे ज्यादा लिखता है। और इन दोनों बातों के बीच में इस सच को भी रखा जा सकता है कि अब कोशिश 'पोलिटिकली अपरूव्ड' सच को बोलने की होती है। इस अतिवादी रिपोर्टिंग से टीआरपी की आईस-पाईस में फायदा मिल सकता है लेकिन समाज को नहीं। (यह लेख 19 अक्तूबर, 2008 को दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित हुआ)